तुम
सावन के गीतों जैसे
धीमी
धीमी फुहारों जैसे
भीगे
भीगे मेरे मन में
छा
जाते हो तन में कैसे।
तुम्हें
छिपाकर सबसे रखती
और
एकांत में देखा करती
डूब
डूबकर तेरे नयनों में
अपना
मुखड़ा देखा करती।
कैसे
कहूं चले आओ तुम
गये
कहां हो जो आओगे
हर
पल मेरे दिल में रहते
कैसे
कहां निकल पाओगे।
देख
रही हूं तुमको ऐसे
कभी
नहीं देखा हो जैसे
छूकर
मुझको गुजर गया हो
कोई
हवा का झोंका जैसे
हाथ
पकड़ कर नहीं रोकती
रोकूंगी
तब जब जाओगे न
तुमने
धूनी यहां जमा ली
क्या
तुम मुझसे छूट पाओगे।
मेरे
मन के इक कोने में
सजी
हुई है आज मल्हारें
भीगा
भीगा है तन सारा
जाने
कितनी हैं मनुहारें।
पूंछू
कैसे कब आओगे
गये
कहां थे जो आओगे
मुझमें
तुममें दूरी क्या है
चाहो
भी तो न जा पाओगे।
भावों
का क्या है प्रियवर
सारे
समय उमड़ते रहते
पीड़ा
से आंखों में रहते
अनगिनत
स्वप्न दिखाते रहते
मेरी
नींद चुरा आंखों से
सो
पाओगे तुम भी कैसे
पूंछ
रही हूं बोलो कुछ तो
मुझे
भूल पाओगे कैसे।
२९०-ए, कृष्णानगर