धर्मेन्द्र कुमार गुप्त
अरे ओ आषाढ़ के घन !
अरे ओ आषाढ़ के घन ! द्रवित कब होगा तेरा मन ! चटकती खेत की मिट्टी दरकते हैं कृषकों के मन अरे ओ आष…
अरे ओ आषाढ़ के घन ! द्रवित कब होगा तेरा मन ! चटकती खेत की मिट्टी दरकते हैं कृषकों के मन अरे ओ आष…
कुछ न ले जाना है फिर भी दिल को सब पाना है फिर भी आग, जल, भू, वायु , नभ में कल बिखर जाना है फिर भी खेलता है …
सियासत में जो बरसों से पड़े हैं समझ लीजे कि वे चिकने घड़े हैं ब स इक अपना ही क…