धर्मेन्द्र कुमार गुप्त
अरे ओ आषाढ़ के घन !

अरे ओ आषाढ़ के घन !

अरे ओ आषाढ़ के घन !     द्रवित कब होगा तेरा मन ! चटकती खेत की मिट्टी   दरकते हैं कृषकों के मन         अरे ओ आष…

ग़ज़ल

ग़ज़ल

कुछ न ले जाना है फिर भी दिल को सब पाना है फिर भी आग, जल, भू, वायु , नभ में कल बिखर जाना है फिर भी खेलता है …

सियासत

सियासत

सियासत में जो बरसों से पड़े हैं समझ लीजे कि वे चिकने घड़े हैं                                   ब स इक अपना ही क…

मेरी शायरी

मेरी शायरी

जो   सामने   नदी   हो तो अधर पे प्यास भी हो                       न उधार की ख़ुशी हो                       सचम…

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