सुनो-
मैं लिखना चाहती
हूँ
कि-
हजार बार भूलने के
बावजूद भी
खूब चीखने-चिल्लाने
के
उपरांत भी
तुम मुझे इतना
क्यूँ याद आते हो !
मैं लिखना चाहती हूँ
कि-
जितनी दूर तक जाती है
मेरी आँखें
प्रत्येक उस शख्स में
क्यों दृष्टिगत होता है
तुम्हारा चेहरा !
मैं लिखना चाहती
हूँ
कि-
भावनाओं का ये जो
समंदर
जो मेरे अंतःकरण
में व्याप्त है
तुम्हारा नेह बनकर
क्या तुम्हें नहीं
दिखलाई देता
उसमें बूंद भर
प्रेम मेरा !
मैं लिखना चाह्ती हूँ
कि-
जब आँखे भीग जाने पर
जहाँ पर कुछ दिखलाई नहीं देता
है
उस लम्हा भी
मैंने उन भीगी पलकों में
सिर्फ तुम्हें ही क्यूँ पाया ?
मैं लिखना
चाहती हूँ
कि-
जिन
प्रतिबिंबों को देख
अक्सर लोग
भयभीत हो जाते है
आखिर में
मैं क्यूँ तुम्हें
उन छायाओं
में ढूंढती रहीं हूँ !
मैं लिखना चाहती
हूँ
कि-
जिन रहगुजर पर
न जाने कितने लोग
आये
और गए
मैं उन्हीं रास्तों
पर
तुम्हारे कदमों के
निशां ढूंढती रही....।
मैं
लिखना चाहती हूँ
कि-
अलगाव
की वेदना का
ये
जो दंश है
जिसे
लोग घुटकर मर जाते है
मैं
उसी दंश को
अंत
तक क्यूँ जिंदा रहकर
सहती
रहीं हूँ.......!!
डॉ0 पल्लवी सिंह 'अनुमेहा'
बैतूल, मध्यप्रदेश