झूठ का जयघोष नित होता रहा,
कुंभ करणी नींद सच सोता रहा।
सेठ जी के सब दरीचे बन्द थे,
भूख से दर पर कोई रोता रहा।
धूप में पिघला किया मेरा बदन,
क़तरा-क़तरा साये संग खोता रहा।
दुश्मनी करती रहीं खुशियां तमाम,
ज़िन्दगी का ग़म से समझौता रहा।
ग़ैर चारागर तो मेरे ज़ख़्म को,
जल-नमक से उम्र भर धोता रहा।
अनुराग
मिश्र ग़ैर
लखनऊ