सीमाओं के पार
हमारी सीमाएँ हैं।
इस बन्धन को तोड़ा
उस बन्धन की ख़ातिर
औरों की पूजा में
छोड़ा अपना मंदिर
चले जा रहे जहाँ अनगिनत
छलनाएँ हैं।
बंजर होने लगी बुद्धि की
उर्वर माटी
अतः शिखर से देख रहे बस
गह्वर-घाटी
बुद्धिमान से मूर्ख तभी हम
कहलाएँ हैं।
ऐसे-ऐसे दौड़ाते हम
मन के घोड़े
हाथ न आता कुछ भी
रहते मात्र निगोड़े
मन के भीतर रहतीं
केवल तृष्णाएँ हैं
भाऊराव महंत
ग्राम बटरमारा, पोस्ट खारा
जिला बालाघाट, मध्यप्रदेश