घर के चार दीवारी में
बन्द
औरतों के पैरों में
जंजीर नहीं होती,
हाथों में नहीं होती
बेड़ियां
पर मुट्ठी भर अपने हिस्से के
आकाश को
तरसती हैं दिन - रात
रंगमहल भी लगता
उन्हें कारावास।
सांसें उनकी
उस पर पहरेदार
आँखें उनकी
करता खबरदार
बदन थका - थका
मन बीमार
जेलर का फरमान
रह अपनी औकात
घर का कोना - कोना लगता
उन्हें कारावास
चौखट लगी दरवाजे
बन्द खिड़कियां घर की
मन करता देखें बसंत को
खेतों और बगिया की
बागवान छलिया है
कहता घर है मंदिर
ईश्वर मैं हूँ
पूजो मुझको
दर्द भरा मन, दर्द भरा तन
बन्द - बन्द जीवन लगता
उन्हें कारावास।
कनक किशोर
राँची, झारखंड