एक पेड़ माँ के नाम

अरुणिता
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एक छवि- सी उभरती है...

न जाने क्यों मेरे व्याकुल मन में!

क्षत-विक्षत है जिसका अंग-प्रत्यंग,

नयनों से बहते रक्त की अविरल धार!

 

जिसकी वेदना उर-अंतस को चीरती...

व्योम का हृदय भी द्रवीभूत हुआ,

ये किसकी करुण पुकार से!

ये कौन है जो असह्य दर्द से तड़प रही?

 

ओह! माँ.., हमारी प्रकृति माँ!

वात्सल्यमई माँ को भी पहचानने में,

कैसे हमने इतनी देर लगा दी?

अपने ही हाथों हमने धरती वीरान कर दी!

 

अपने ज्ञान और अहंकार के भ्रम में,

बांध ली अपनी आँखों पर स्वार्थ की पट्टी!

जिसकी कृपा ने ये सुंदर सृष्टि रचाई...

उसी पर हमने दे डाली अपनी भयावह कुदृष्टि!

 

ये करुण रुप तो मात्र छलावा है माँ का,

धैर्य जो टूटा तो लेगी प्रलय का वो विकराल रुप!

मिट जाएगा ये समस्त संसार निश्चय ही उस दिन...

फिर नहीं मिलेगा हमें पश्चाताप का अवसर भी!

 

वक्त रहते, प्रकृति माँ के मूक इशारों को पहचान...

मांग ले माँ से एक अवसर और क्षमादान!

लेकर प्रण, लगाएं एक पेड़ माँ के नाम...

एक एक पेड़ जीवनदायिनी माँ के नाम!

 

अनिता सिंह

सहायक अध्यापिका

देवघर, झारखंड

 

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