कहाँ हो
शब्द?
आओ ना
बैठो
तुमसे कुछ बातें
करनी है
कितने शक्तिशाली हो तुम
कैसे अपने अंदर
इतनी सारी चीजों को
संभाल लेते हो
इतना वजन
कैसे संतुलित कर लेते हो
खुशी,तनाव,विषाद
आक्रोश
सबको एक साथ
अपने अंदर छिपाए रखना
कोई आसान काम तो नहीं
प्रशंसा और आलोचना तक तो
समझता हूँ
परन्तु चुभते हुए जलते व्यंग्य
आखिर कैसे
कभी तो तुम्हारा मन भी
फटता होगा
इस दुनिया के
छल से,प्रपंच से
कभी तो फटने लगती होगी
तुम्हारे मस्तिष्क की भी सूक्ष्म
नसें
तुम्हारा भी रक्तचाप
कभी तो बढ़ता होगा
जब अक्षर तुम्हारे अनुकूल
ना होकर
तुम्हारे ही विरुद्ध
षड्यंत्र करते होंगे
मानता हूँ कि तुम हर्षित भी होते
होगे
कभी किन्हीं बातों पर
परंतु तुम बिलखकर
रोते भी तो होगे।
सुनो शब्द!
मानव जीवन भी
एक शब्द ही है
जिसके अंदर
अक्षर रूपी भावनाओं का गुबार है
परंतु यह बाध्य है
इन गुबारों से
फटकर भी जीने को
जीता रहता है
अक्षर रूप में
कालकूट का स्नेह
अनवरत पीता रहता है।
अनिल कुमार मिश्र
राँची,भारत