बेहतरीन की तलाश में अक्सर
बेहतर को छोड़ देते हैं लोग
आँख खुलती है जब तक
बहुत देर हो चुकी होती है
फसाना बना कर जिंदगी का
खुद भी कहाँ खुश रह पाते हैं
बिता देते हैं जिंदगी अकड़ में
कुछ लोग जैसे दिखते हैं
वैसे होते कहाँ हैं ?
एक पारस पत्थर इंसान को
नापने का भी होता काश
परख हो जाती कितनी आसान
न फिर किसी को पछतावा होता
जो नहीं मिलता उसी की कद्र होती है
आसानी से मिलने वाला हीरा भी
अपनी कीमत खो देता है
दुनिया का दस्तूर ही कुछ ऐसा है
माँगते हैं जिंदगी हाथ फैलाकर
वक़्त के साथ जिंदगी का
साथ निभाना भूल ही जाते हैं
वर्षा वार्ष्णेय
अलीगढ़, उत्तर प्रदेश