बरस जाओ हे मेघ

अरुणिता
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बरस जाओ हे मेघ;

भिगा डालो जगत के वसन को,

शीतल कर दो वसुधा के;

दहकते तन-मन को |

 

कहीं अनल क्षुब्धा का;

कहीं मोह की जवाला,

बरस कर तर कर दो;

तृष्णाओं के जलते वन को |

 

दहकते प्रतिकार के अंगार;

रक्त-तप्त मनुज का अहंकार,

बरसो और शान्त करो;

ईर्षाओं के  दहन को |

 

जल रहा कोई कहीं वर;

किसी के कपट से,

बरसो और बचा लो किसी के;

लोभ से जलती दुल्हन को |

जय कुमार 

शामली, उत्तर प्रदेश 

 

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