जाड़े की धूप

अरुणिता
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जी करता जाड़े की धूप,

खीचूँ डोर लगाकर।

पास बिठाऊँ दिनभर उसको,

रक्खूँ उसे जगाकर।।


बन्द करूँ बक्से में अपनें,

फिर मैं उससे पूँछू।

बड़े जलाते थे गर्मी में,

अब तो तुमको सेंकूँ।।


साँझ ढले दीवारों में,

आओ तुम्हें सजाऊँ।

ठंडे पड़े बिछावन में,

थोड़ी धूप लगाऊँ।।


भोले बनते होअब तुम,

जब देखा जाड़े का रुख।

कहाँ गई सारी गर्मी,

अब काँप रहे हो खुद।।


तेवर जरा दिखाओ अपना,

मई जून वाला।

अभी दिसम्बर ही तो है,

क्यों ओढ़ चले दुशाला।।


कब आए कब डूब गए,

थोड़ा तो रुक जाते।

अभी जनवरी बाकी है,

अनुमान बताकर जाते।।


विजयलक्ष्मी पाण्डेय
आजमगढ़,उत्तर प्रदेश

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