प्रकृति की माया

अरुणिता
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वृक्षों पर हरियाली थी

शाखाएं ज्यूं हरे-भरे सुकुमार

आनंद विभोर हो झूमे पत्ता-पत्ता

शीतल मंद जो बहे बयार।

देख निज रुप मनभावन

हर्षित तरु, मंद-मंद मुस्काया

अपने भाग्य पर वो बहुत इतराया।




विधि का विधान भला किसने जाना,

तय था एक दिन पतझड़ का भी आना।

वृक्ष का पत्ता-पत्ता टूट कर गिरा,

अपनी नियति पर वो खूब रोया।

उन सूखे पत्तों से विहंगों ने जो नीड़ बनाया,

नन्हें-नन्हें चूजों का वो बना बसेरा।

पत्ता पड़ा अचरज में देख प्रारब्ध की लीला...




इधर ठूंठ बनकर वृक्ष खड़ा था,

आएगी बहार, इसी ज़िद पर अड़ा था।

वक्त गुजरा, मौसम ने बदली करवट

कोंपले फूटी, वृक्ष पुनः लहलहाया...

अलि संग विहगों ने भी मधुर तान सुनाया।

दुःख के दिन बीते, आनंद का क्षण आया...

गर्वित हो वृक्ष निज भाग्य पर इठलाया।




प्रकृति का है संदेशा यही,

दुःख में धीरज कभी न खोना साथी।

सुख में अहंकार कभी न करना,

सुख-दुःख दोनों है प्रकृति की माया...

अपने कर्म पथ से तुम विचलित कभी न होना।

भाग्य भी उसी का साथ देता है जग में,

विपत्ति में भी आत्मबल जिसने कभी न खोया।



अनिता सिंह

देवघर, झारखण्ड


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