कैसे भूलूँ तुझे ऐ माँ

अरुणिता
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छुटपन में आता न था खाना

न ही चलना और बैठना

पैदा हुए तो एहसास न था

जीने का आगाज न था

तूने ही संभाला था

तूने ही संवारा था

बड़े होने की व्यथा बड़ी

सज़ा  बड़ी कड़ी थी

दुःख की तपती धूप थी

तब तुम ही तो छांव  शीत थी

लिखी थी किस्मत रब ने

संवारने वाली तो तू ही थी

नहीं जानती थी तू पढ़ना और लिखना

पढ़ाए थे तूने आंठो ही को

बेटी  हो  तेरी या  हो तेरा बेटा

पिता का सहारा दादाजी की लाठी

और अन्नपूर्णा बन सब को खिलाती

सुना मौसी और फूफी से तेरी तीमारदारी के फसाने

पीछे नहीं रहे थे पास पड़ोस  वालें

उन्नत थी सोच तेरी वैसी ही थी करनी

कैसे भूले तेरी वो बातें जो तू हर मौके पे  थी बताती

 तेरे  प्यारे हाथों का वह स्पर्श 

जो एक सकून से कुछ  था ज्यादा

न कहा किसी ने जो था चाहिए

बिन मांगे मिलजाता  था सब

दिन पर कामों में बीते था तेरा

फिर भी न थकती थी तू

न थकी तू न रुकी तू

अवीरत ही चलती गई तू

चलते चलते कहां पहुंची कि

वापस आई ही नहीं तू

 


जयश्री  बिरमी

अहमदाबाद

 

  

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