अरे ओ आषाढ़ के घन !
द्रवित कब होगा तेरा मन !
चटकती खेत की मिट्टी
दरकते हैं कृषकों के मन
अरे ओ आषाढ़ के घन !
रुका है रूपा का गौना
पड़े हैं गहने सब रेहन
अरे ओ आषाढ़ के घन !
सजल हैं धनिया की आँखें
सोच में होरी है गहन
अरे ओ आषाढ़ के घन !
चुनर कब धानी देगा तू
बनेगी धरती कब दुलहन
अरे ओ आषाढ़ के घन !
---धर्मेन्द्र गुप्त ' साहिल '
के 3 10 ए माँ शीतला भवन गायघाट
वाराणसी -221001