एक
लंबा सा बांस
अपनी
ऊंचाई से डेढ़ गुना
हाथ
में पकड़े रोज गुजरता है घर के सामने से
नहीं
जानता कौन है वह
मैले-कुचैले
कपड़े
दाढ़ी
बढ़ी हुई
पैरों
में फटे जूते
कंधे
पर मोटा खेस
दिखता
कुछ विक्षिप्त सा
पर
उसका कोई व्यवहार, गतिविधि
नहीं असंयत
आँखों
से सहज झलकती वीरानी, शून्य
उम्र
होगी पचपन साठ के बीच
अभावों
ने कर दिया जर्जर
कौन
है यह
क्या
चौकीदार
पूछा
मैने एक दिन
क्या
तुम चौकीदार हो
बोला
वह हाँ और निरपेक्ष भाव से बढ़ गया आगे
नहीं
देखा मुड़कर
न
बताया नाम
आगे
कुछ नहीं बोला
जानना
चाहा आसपास के लोगों से
किसी
ने बताया अर्धविक्षिप्त
किसी
ने कहा एक सेठ के घर के बाहर रात में देता है पहरा
मिल
जाता है रात का खाना
उसमें
से कुछ बचाकर खा लेता है सुबह
दिन
में नाले के किनारे एक झुग्गी में सोता है
कई
बरसों से देख रहा हूँ उसे
इसी
तरह आते जाते
कभी
नहीं मांगा कुछ भी उसने
यद्दपि
हर बार मैने जाननी चाही उसकी जरूरत
पर
असफल रहा
एक
दिन एक मिस्त्री ने बताया
पहले
वह एक कारखाने में मजदूर था
कारखाना
बंद हुआ
चला
गया रोजगार
छत्तीसगढ़
या झारखंड कहीं से आया था
परिवार
चला गया गाँव वापस
वह
नहीं गया
करने
लगा चौकीदारी
कोरोना
के समय हो गया बहिष्कृत दुनिया से
झुग्गियों
का आश्रय
बिगड़
गया मानसिक संतुलन
फिर
भी लगातार जाता रहा हर रात करने चौकीदारी
सेठ
के घर के सामने बैठा रहता रात भर
सर्दी
गर्मी बरसात
सहज
हुआ परिवेश कोरोना के उपरांत
जारी
रहा उसका रूटीन
रात
पहरेदारी दिन में झुग्गी की छांह
अपेक्षा
नहीं किसी से कोई
एक
दिन देखा उसे एक पोटली लिये फटे पुराने कपड़ों की
रख
दी पार्क की बाउंडरी पर
पुराने
जूते उठाए एक दिन
रख
दिये थे मैने घर के बाहर
धीरे
धीरे सिमट रहा था स्वाभिमान
दयनीयता
और याचना दिखी उसकी आँखों में
नहीं
कोई स्वप्न न आकांक्षा
मैने
दस रुपये का नोट पकड़ाया
ले
लिया उसने
फिर
सजग हो गया वह
खत्म
हुई दयनीयता
बीते
डेढ़ दो वर्ष
विगत
दो माह से नहीं दिख रहा वह
किसी
को नहीं पता कहाँ गया वह
जीवित
भी है या नहीं
चला
गया अंततः वह
शायद
नहीं लेना चाहता था किसी का कोई अहसान
शैलेन्द्र
चौहान
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