संस्कारी पुड़िया

अरुणिता
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शाम होते होते सगरो गाँव में ढिंढोरा सा पिट गया- " गोपला ने गणेशवा की बहू को ले भागा...! "

" सुना तुमने, भौजी देवरवा के साथ भाग गयी...! "

जिसने  सुना, वही दोनों को गरियाते नज़र आये- 

" छि : छि  : कैसन युग आ गया, बोडो-  छोटो की कोई ख्याल नाय..! " औरतों को खुराक मिल गया। 

  " आज के  लौंडा- छौंडा से इससे बेहतर उम्मीद नहीं कर सकते हो..!" बूढ़े कुढ़ने लगे। 

" न रिश्तों की प्रवाह है न लाज लिहाज..!" हर किसी का मुंह बजने लगा था। 

  खिसियायी सुशीला देवी कपार पर हाथ धरे आंगन में बैठी अपनी तकदीर को कोसने लगी-“ भतार भी ढंग का नहीं मिला, बेटा भी उसी के रंग निकला..! “

 सुशीला देवी गाँव के आदर्श आंगनबाड़ी केन्द्र में  बच्चों को आदर्श की पाठ पढाती थी। गाँव में  लोग उसे मास्टरनी कहा करते हैं थे। भारी भरकम शरीर की मालकिन सुशीला देवी को फाड़ देने से पैंतीस पैंतीस की दो औरतें निकल आती। उसी को उसके छोटे बेटे ने उसके जीवन का जैसे दो फाड़ कर दिया था । उसके बाद गाँव में जो दुर्गन्ध फैली  ! वो गूह मुंह होने जैसा था। 

सुशीला देवी बहुत ही संस्कारी महिला थी। प्यार दुलार के साथ उसकी माँ ने बचपन में ही उसे  संस्कार  की जन्मघुटी पीला दी थी। लेकिन वही जन्मघुटी सुशीला देवी अपने दोनों बेटों को पिलाने में नाकाम रही थी । अगर पिला पाती तो जीवन का ऐसा कचरापन उसे देखना नहीं पड़ता  ।

 घर में क्या हो रहा है, गाँव में क्या हो रहा है, कौन क्या कर रहा है, उसके पति भालचंद महतो का उससे कोई मतलब नहीं था। और न पत्नी से कोई मतलब था न उसके प्यार से कोई वास्ता था । न बेटों के भविष्य को लेकर उसके दिमाग में कोई योजना थी। न उन दोनों की पढ़ाई से भी उसका कोई सरोकार, कोई लेना देना  था। उनकी अनुपस्थिति में दोनों बेटे जैसे तैसे बढ़ रहे थे और पढ़ रहे थे। और वह गोमिया प्रखण्ड में एक सरकारी कर्मचारी के रूप में पैसे बटोर रहा था, कहें तो पैसे पीट रहा था। एक बार महीने में घर आने की बात कहने पर पत्नी को एडे़ मुक्के मार कर बुरी तरह घायल कर दिया था। उसके गुप्तांग को सूजा देख डॉक्टर मीरा जैन ने गुस्से में कहा था " वह आदमी है कि कोई दरिंदा ! पत्नी को इतनी बेरहमी से कोई पीटता है क्या..? “

उस दिन के बाद सुशीला देवी ने पति के साथ कोई समझौता नहीं की और अपनी जिंदगी अपने ढंग जीने का फैसला कर लिया। आंगनबाड़ी उसके जीवन का केंद्र बन गया । 

 यधपि अब तक जिये जिन्दगी में सुशीला देवी  कभी सकून के दो पल नहीं जी पाई थी। वो समझ नहीं पा रही थी कि उसके जीवन में इतना उठा पटक क्यों है?  बड़ा बेटा गणेश आंख चिपता हुआ पैदा हुआ था। वह हमेशा आंख चिपता रहता। शरीर बाप सा काला और चूल भालू सा। शक्ल से भी और अक्ल से भी बाप जैसा। पैदा भी हुआ था विचित्र स्वभाव का। बचपन में तो प्रायः सभी बच्चे घिसिर घिसिर कर चलते हैं। लेकिन गणेश पेट के बल पर चलता था। जहाँ बैठता उसी दिशा में लंबे समय तक टकटकी लगाये देखता रहता था। बोलता कम और खाता ज्यादा। गोबर गणेश जैसा। ठीक उसके विपरीत सुशीला देवी का छोटा बेटा गोपाल पैदा हुआ था। पर यह भी शक्ल से बाप पर गया था। लेकिन अक्ल उसने बाप से तेज़ पाया था। बचपन में ही औरतों की साडियां खींचना जैसे पेट से ही सीख कर आया था। जब वह सात आठ साल का था तभी उसने एक दिन साड़ी खींच कर माँ को ही नंगी कर दिया था। माँ को लगा था बेटा शरारत कर रहा है, लेकिन जब पूरी तरह नंगी हो गई, तो बेटे को जोर का थप्पड़ मार दी  " बाप जैसा बनेगा क्या तू  भी ?"

सुशीला देवी पति भालचंद् को भी कहां समझ पाई थी। जब घर आता। पूरा जानवर बना हुआ होता। आते ही सुशीला देवी पर अय्यास की तरह टूट पड़ता। न दिन देखता न रात। न घर देखता और न आंगन। पत्नी की शरीर को नोचना शुरू कर देता। बड़े हो रहे बच्चों तक नज़र अंदाज कर दिया जाता था। एक दिन भालचंद ने घर में कदम रखते ही आंगन में बाल संवार रही सुशीला देवी को पीछे से दबोच लिया और आगा पीछा देखे बगैर सर्रर.से साड़ी खीच कर पत्नी को नंगा कर दिया  और उसी तरह उठा कर सीधे अंदर विस्तर पर ले गया था। यह सब गोपाल ने अपनी चंचल आंखों से भरा पुरा रूप में देखा । तब वह आंगन के एक कोने में बैठा लुडू खेल रहा था । 

वही गोपाल बचपन से ही औरतों के साथ लुकाछिपी खेलना शुरू कर दिया था। नहाती हुई औरतों को दीवार के पीछे से छिपकर देखना, लघु शंका कर रही को टकटकी लगाये देखना, गोपाल ने पैदा होते ही जैसे सीख लिया था। पर सुशीला देवी को यह बच्चों का बचकाना से ज्यादा कुछ नहीं लगता । " बच्चे बचपन में ऐसी शरारतें करते ही हैं  !" किसी के उल्हाने की जवाब में वह कहा करती थी।

उधर गोपाल जैसे जैसे बड़ा होता गया, उनकी हरकतों के पांव भी बड़े होते चले गये थे । 

अब उसे जब मौका मिलता, औरतों की जमात में घुस जाता और उनकी बातों को बड़ा गौर से सुनता। कभी कभी औरतें उसे डांट कर भगा देती  " चल भाग यहाँ से, हमारी बात क्या सुनता है, जनीमेहरा ( चुपके चुपके औरतों की बात सुनने वाला) कहीं के..!"  वह उठ कर थोड़ी दूर जाता, फिर लौट आ चुपके से किसी के पीछे चिपक जाता। उसे देख मुझे अपने बचपन के दोस्त दौलत की याद रही थी। " पक्का जनीमेहरा है  ! " औरतों ने उसे उपाधि दे रखी थी। वह भी अक्सर औरतों की भीड़ में पाया जाता था। अब इस दुनिया में नहीं रहा  । 

   इधर गणेश सोलह साल की उम्र में भी वैसा का वैसा ही था। शरीर से बड़ा हो गया था। लेकिन हुलकने का भाव- अंदाज वही था,बचपन वाला  ! बोर्ड परीक्षा में गांधी डिवीजन से उसने पास किया था- इसी साल । पर घर में किसी ने उसे बधाई तक नहीं दी। माँ ने कहीं से आधा किलो लड्डू लाकर दी और कहा " बांट दो अपने दोस्तों के बीच, ताकि सबको पता चल जाएं कि तू पास कर गया है..! " 

उसने वही किया। परन्तु यहाँ भी किसी दोस्त ने उसे बधाई नहीं दी थी। उसने बुरा नहीं माना। बाद में बकरीयों को लेकर जंगल की ओर निकल पड़ा था। बकरियाँ चराना उसका रोज का काम था। 

  दो साल बाद सुशीला देवी के दूसरे बेटे गोपाल ने बोर्ड परीक्षा लिखी । बाप के डिवीजन मार्क से पास किया। बाप भालचंद सेकेंड होल्डर था। इस रिजल्ट के बाद गोपाल का एक और रिजल्ट सामने आया - लड़की अगवा करने का ! 

बिमला कुमारी पडोस गाँव की थी। नावाडीह हाई स्कूल में नवमी की छात्रा थी। हर दिन पैदल स्कूल आती जाती थी । सुनसान तेतरिया मोड़ में एक दिन गोपाल ने उसे उठा लिया। सोचा था  यह भी मान जायेगी, जैसे पहले के दो लडकियां मोबाइल रिचार्ज के पैसे लेकर मान गयी थीं। लेकिन बिमला नहीं मानी, उसने बवाल मचा दी। पडोसी गाँव में खूब हल्ला मचा। लडकों ने गोपाल को खूब दौडाया। दस बजे रात वह पकड़ में आया। दोनों गाँव के बीच चबूतरा पर पंचायत बैठी। गोपाल का बाप भालू की तरह पंचायत में आकर खड़ा हो गया। जहाँ गोपाल की माँ सुशीला देवी ने पंचायत में अपनी बात रखी -"   मैं लड़की को अपने घर की बहू बनाने को तैयार हूँ..!"  ‌‌

लड़की के बाप ने एतराज़ किया। कहा -" मेरी लड़की अभी नाबालिग है, और फिर इस म्लेछ से! कौन अपनी बेटी का ब्याह दे।  इसे पुलिस के हवाले कर देना चाहिए ताकि फिर यह गंदी हरकत न करे..! "

इसके बाद बड़ी देर तक पंचायत शोर गुल में डूबा रहा। उसी बीच मुखिया ने हस्तक्षेप करते हुए कहा " हम किसी के भविष्य को बर्बाद करना नहीं चाहते है, इसकी पहली गलती समझ माफ़ किया जा सकता है। लेकिन फिर दूबारा ऐसा हुआ तो सीधे पुलिस के हवाले कर दिया जायेगा..। " 

  सुशीला देवी को समझ में आ चुका था। छोटा बेटा बुरी तरह बिगड़ चुका है। उसे सुधारना उसके बस की बात नहीं है। तभी उसका ध्यान बड़े बेटे गणेश की ओर गया। वह इक्कीस साल का हो चुका था। एक दिन उसने गणेश से कहा " मैं तुम्हारी शादी कर देना चाहती हूँ..! "

गणेश बहुत कम बोलता था। तब भी उसने कम ही बोला-" कर दो, तुम्हारे कामों में मदद कर देगी..! "

पर गणेश की शादी, सुशीला देवी के जीवन में बडा़ ही बुरा और गुड़ गोबर करने वाला साबित हुआ  !  " मास्टरनी, मरते दम तक इसे भूला नहीं पायेगी.।" ऐसा लोगों का मानना था। और इसका कारण बना कौन, वही कपूत बेटा गोपाल  ! 

   आषाढ़ माधे गणेश की शादी पडोसी गाँव के दिनबंधु महतो की बेटी सुमित्रा कुमारी के साथ समाजिक रीतिरिवाज से कर दी गई। इस शादी से सुमित्रा खुश नहीं थी। उसे गणेश पसंद नहीं था।

 " बिना तिलक दहेज के आज कल कौन लड़का शादी करता है..? बोलो  ! " माँ बाप ने समझाया

 इस तरह माँ बाप के दबाव के आगे उसे झूकना पडा था। सुमित्रा थोड़ी चंचल स्वभाव की तो थी ही, आजाद ख्याल की भी थी। चटर पटर खाने और अच्छे कपड़े पहनने का शौक़ भी रखती थी। लेकिन अभाव ने उसके हाथ पैर बांध रखे थे। शादी होते ही उनकी दबी अकाक्षांओं ने जोर मारना शुरू कर दिया था। हर दिन पति के सामने नयी नयी फरमाइश करने लगी। गणेश कुछ ला देता, कुछ नहीं ला पाता। सुमित्रा उल्हाना देने लगती " कैसन मरद हो, आपन पत्नी की इच्छा पूरी नहीं कर पाते हो..? " और रूठ जाती थी। गणेश उसको उसी हाल में छोड़ बकरियों को लिए जंगल की ओर निकल जाता। तब यही गोपाल भाभी की बाकी इच्छाओं को लाकर पूरी कर देता और कहता " लाकर तो दे  रहा हूँ। पर देवर हूँ, पति मत समझ लेना..! "

" लाकर दे तो रहे हो, पर भाभी हूँ, पत्नी मत समझ लेना..! " सुमित्रा हंस कर जवाब देती। 

इस तरह की बातें उस घर की दीवारों से हर दिन टकराने लगी थीं। जो सुमित्रा इस शादी से नाराज थी। वही गोपाल का सान्निध्य पाकर सूर्यमुखी लगने लगी थी। वक्त दबे पाँव आगे बढता रहा। देवर भाभी  की युगल जोड़ी से घर का कोना कोना खिलखिलाने लगा। सुमित्रा भूल चुकी थी कि गोपाल उसका मरद नहीं बल्कि देवर है। हर वक़्त उसी के बारे सोचती रहती थी। सुशीला देवी को अच्छा भी लगता और नहीं भी लगता " देवर भाभी में इतना सब कुछ तो होता है..!" वह सोचती थी।

  सुमित्रा करम परब में नैहर गयी थी। दस दिन रही। सुशीला देवी ने गणेश को उसे लाने भेजा। सुमित्रा ने आने से मना कर दी। गणेश लौट आया। उल्टे सुमित्रा ने गोपाल को अपने पास बुला ली। गोपाल पंद्रह दिन सुमित्रा के साथ रहा। सोलहवें दिन गोपाल के साथ ससुराल चली आई ‌। परन्तु रात को वह गणेश के कमरे में जाने की बजाय गोपाल के कमरे में घुस गयी और अंदर से हुडकी (कुण्डी) लगा दी। सुबह सुशीला देवी ने उसे बहुत खरी खोटी सुनाई " तुम्हारा मरद गोपाल नहीं गणेश है, यह लछन ठीक नहीं है, लोग सुनेंगे तो थूकेंगे तुम पर। मरद बदनाम नहीं होता, औरतें बदनाम होती हैं..! " और वह अपने आंगनबाड़ी चली गई। 

शाम को सुशीला देवी लौटी तो, घर में न सुमित्रा मिली और न गोपाल मिला। आंगन में गणेश माटी की मूरत की भांति एक कोने में लुटे-पिटे हालत में बैठा हुआ था। उसकी सुदामा हालत देख सुशीला देवी को उस पर बड़ा क्रोध आया। आगे बढकर उसने उसकी गाल पर एक जोरदार चांटा जड़ दी।  कहा -" तुम्हारी औरत किसी दूसरे मरद के साथ भाग गयी और तुम यहाँ माटी का माधव बना बैठा  है। उसकी हाथ पैर नहीं तोड़ सका..!" 

उधर गोपाल का फोन लगातार "स्वीच आफ"  आ रहा था । 

 सुशीला देवी आंगन में ही बडबडाते हुए चक्कर काटने लगी " वाह रे बेटा  ! बाप का जन्मघुटी तुमने भी पी ली..! " 


श्यामल बिहारी महतो

ग्राम- मुंगो

पोस्ट- गुंजरडीह

थाना- नावाडीह

जिला- बोकारो, झारखंड

पिन कोड-829132

  

 

 

 

 

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