मनुष्य जीवन में कुछ शब्द ऐसे होते हैं जो भाषा के कोश में तो बहुत सामान्य लगते हैं, लेकिन जब वो लोक-व्यवहार में उतरते हैं तो उनकी व्यंजना शक्ति विस्फोटक हो जाती है. "ढक्कन" ऐसा ही एक शब्द है. ढक्कन एक वस्तु नहीं, एक मानसिकता है. ढक्कन केवल किसी वस्तु को ढकने का साधन नहीं है, बल्कि यह मानसिक, सामाजिक, नैतिक और आध्यात्मिक स्तर पर भी विभिन्न चीज़ों को छुपाने, रोकने या नियंत्रित करने का प्रतीक बन जाता है. "ढक्कन" शब्द का प्रयोग सामाजिक दिखावे और पाखंड को उजागर करने के लिए किया जाता है. "ढक्कन के नीचे समाज की गंदगी, नैतिक पतन और मानसिक संकीर्णता को छुपाया जाता है. व्यवस्था की विसंगतियाँ, राजनीति का छद्म चेहरा, ग्रामीण भारत में फैला कुप्रबंधन, ये सब "ढक्कन" के पीछे छुपाए गए यथार्थ हैं. ढक्कन यहाँ उस खोल का कार्य करता है जो भ्रष्टाचार, पक्षपात और सामाजिक असमानता को ढक कर एक बनावटी सुचारुता प्रस्तुत करता है.
‘ढक्कन’ एक नैतिक दृष्टांत बन कर भी उभरता है. समाज ने शील, मर्यादा और धर्म के नाम पर
"ढक्कन"
लगा रखा है, जिसके कारण सच्चाई सामने नहीं आ पाती. उदाहरणस्वरूप, यदि कोई
युवा सवाल करता है तो उसे “मर्यादा का ढक्कन” दिखाकर चुप करा दिया जाता है. ढक्कन यहाँ सामाजिक दमन और डर का प्रतीक है. ढक्कन कभी बाबुओं की
मानसिकता को ढकता है, कभी तंत्र की अकर्मण्यता को. कभी वह दबाता है, कभी छुपाता है, कभी खीज पैदा करता
है, तो कभी हँसी. पर यह तय है—जब तक ढक्कन हैं, तब तक
व्यवस्था जीवंत प्रतीत होती है!
अब बात करते हैं "ढक्कन कहीं का!" कहे जाने के भाव की. यह आमतौर पर तब बोला
जाता है जब कोई व्यक्ति बुद्धिहीनता, अज्ञानता, या हास्यास्पद मूर्खता का प्रदर्शन
करता है. यह गाली भी नहीं है, सलाह भी नहीं, पर
असर ऐसा कि व्यक्ति आत्ममंथन में चला जाए. लेकिन जब कोई कह देता है"ढक्कन कहीं का!" तो इसमें क्रोध, हंसी, उपहास, तंज, और
कभी-कभी आत्मा को छलनी कर देने वाली भारतीय जुगनुओं की चमक होती है. कहते हैं जब सृष्टि की
रचना हुई, तो ब्रह्मा जी ने मनुष्य, पशु, पक्षी सब बना दिए, लेकिन तब तक कोई भी
वस्तु पूरी नहीं मानी जाती थी. तभी एक दिन एक पात्र में
कुछ रखा गया और उसे खुला छोड़ दिया गया. हवा चली, धूल गिरी, कौआ
आया, चोंच मारी. तभी एक ऋषि चिल्लाया—“अरे कोई ढक्कन दो!” और उसी क्षण सृष्टि का संतुलन बना. इस प्रकार ढक्कन सृष्टि का सबसे संतुलित और 'क्लोजर'
सिद्धांत बन गया. कहने का तात्पर्य यह है कि जैसे ही हम
इस वस्तु पर दृष्टि के साथ चिन्तन आरंभ करते हैं, यह मात्र एक वस्तु नहीं, एक गहरी
जीवन-दर्शन की प्रतीक बन जाती है.
"ढक्कन" का इस जगत में बहुआयामी अस्तित्व है. यह सामान्यतः किसी पात्र
को ढँकने वाली वस्तु के रूप में प्रयोग किया जाता है. यह हमें घरेलू जीवन में
सहज दिखता है – कभी दूध के भगौने पर, कभी मसालों की डिब्बियों में, तो कभी बच्चों
के टिफिन बॉक्स में. पर ढक्कन का मूल उद्देश्य किसी वस्तु
को ढँकना, संरक्षित करना और बाहरी तत्वों से उसकी रक्षा करना होता है. यह न केवल खाने-पीने की
चीज़ों को अशुद्ध होने से बचाता है, बल्कि उनके भीतर की ऊष्मा, महक और ऊर्जा को भी
सहेजकर रखता है. घरों में ढक्कन साफ-सुथरेपन और व्यवस्था का प्रतीक
होता है.लेकिन जब यही ढक्कन तात्त्विक और प्रतीकात्मक रूप में
देखा जाए, तो यह कहीं अधिक गहरे अर्थों को प्रकट करता है. सामाजिक, राजनीतिक,
सांस्कृतिक और बौद्धिक स्तर पर व्याप्त ऐसा सार्वभौमिक प्रतीक जो हमारी सोच से
लेकर सरकारी फाइलों तक सब पर कसकर बैठा है. जीवन में हम सभी किसी न
किसी ‘ढक्कन’ के नीचे रहते हैं—चाहे वह सामाजिक नियम हों, पारिवारिक अपेक्षाएँ,
धार्मिक आस्थाएँ, या मानसिक सीमाएँ.
‘आध्यात्मिक दृष्टि से,
सबसे बड़ा ‘ढक्कन’ अज्ञान है. भारतीय दर्शन में कहा गया है कि आत्मा नित्य, शुद्ध, बुद्ध
और मुक्त है, परंतु जब यह अज्ञान के ढक्कन के नीचे आ जाती है, तो वह अपने स्वरूप
को भूल जाती है. ज्ञान कामना रूपी शत्रु से ढँक जाता है. यह ‘कामरूप’ भी एक प्रकार का ढक्कन है, जो आत्मा की
दिव्यता को सीमित कर देता है. साथ ही आध्यात्मिक
दृष्टि से ढक्कन हमें यह सिखाता है कि प्रत्येक मनुष्य के भीतर ज्ञान, करुणा और
चेतना का भंडार है, परंतु यदि वह खुला रह जाए तो बाहरी विकार उसमें प्रवेश कर सकते
हैं. इसलिए मानसिक 'ढक्कन'
लगाना आवश्यक है ताकि आत्मिक ऊर्जा व्यर्थ न हो और आंतरिक शांति बनी रहे. हमारे मन पर भी कई प्रकार
के ढक्कन होते हैं. कभी हम क्रोध को दबा
देते हैं, कभी प्रेम को. कई बार यह नियंत्रण आवश्यक होता है, ताकि हम सामाजिक मर्यादाओं का पालन कर
सकें, लेकिन कई बार यह ढक्कन इतने कठोर हो जाते हैं कि हमारी भावनाएँ भीतर ही भीतर
कुंठित होने लगती हैं. आधुनिक मनोविज्ञान कहता
है कि मन में दबी भावनाएँ लंबे समय तक रहने पर
मानसिक विकृति का कारण बनती हैं. इसलिए जरूरी है कि हम जानें कि कब ढक्कन लगाना है और कब हटाना है. स्वामी विवेकानंद ने कहा था, “ऊर्जा
को दमन नहीं, दिशा दो.” यानी ढक्कन का प्रयोग
केवल तब तक उचित है, जब तक वह सुरक्षा और संतुलन बनाए रखे, न कि विकास में बाधा
बने. प्राचीन ग्रंथों में ढक्कन का प्रयोग
रहस्य के प्रतीक के रूप में भी हुआ है. उपनिषदों में ब्रह्म को ‘गूढ़’ और ‘गुप्त’ कहा गया है,
जिसे केवल गहन साधना से जाना जा सकता है. यह ज्ञान किसी सामान्य बुद्धि से नहीं प्राप्त होता; इसे
पाने के लिए हमें अपने मन के स्थूल ढक्कनों को हटाना होता है—अहंकार, मोह, लोभ, भय
आदि. "तत् त्वम् असि" – 'वह तू है' यह अद्वैत वाक्य केवल तभी समझ आता है जब व्यक्ति अपने
ज्ञान और अनुभव के ऊपर से अज्ञान का ढक्कन हटाए.
वैसे बचपन से ही हमें ‘ढक्कन-संस्कृति’
में ढाल दिया जाता है. मां कहती है, दूध में
ढक्कन लगाओ वरना मक्खी गिर जाएगी. पिता कहते हैं, दिमाग़ में ढक्कन लगाओ, फालतू सपने मत देखो. शिक्षक कहते हैं, सवाल मत पूछो –
किताब पढ़ो और चुप रहो. यानी हर स्तर पर ढक्कन तैयार हैं – किसी को कुछ सोचने, पूछने, टटोलने की
अनुमति नहीं. एक बार अगर बच्चा गलती से कुछ नया
सोच ले, तो पूरा समाज मिलकर उसके दिमाग़ पर ढक्कन लगा देता है – “यह हमारे परिवार
में नहीं होता”, “इतना मत सोचो”, “सब चलता है” इत्यादि. शिक्षा व्यवस्था में भी ढक्कनों की भरमार है. पहले शिक्षक ज्ञान का ढक्कन हटाकर ज्ञान
उड़ेलते थे. परंतु अब बच्चों से कहा
जाता है – रट लो, नंबर लाओ, सवाल मत करो. पाठ्यक्रम में ऐसे विषयों को रखो जो भावनाएं आहत न करें,
सत्य से दूर रहें, और इतिहास में “महानताओं” का ढक्कन लगा सकें. सिस्टम द्वारा अब उस पर एक स्थायी ढक्कन फिट कर दिया गया
है, जिसे हटाना लगभग मुश्किल है. यह ढक्कन न विचारों को बाहर निकलने देता है, न किसी और के विचार भीतर आने
देता है. इसकी बनावट भी बहुल है – जाति, धर्म,
परंपरा, राजनीति, झूठे गौरव और अफवाहों की एक सम्मिश्रित मिश्र धातु से गढ़ा गया
है. अब यदि आप वैज्ञानिक सोच की बात
करें, तो तुरन्त बताया जाएगा कि “हमारे वेदों में सब कुछ पहले से है”. यानी विज्ञान भी ढक्कन के भीतर बंद
है – न कोई संशोधन, न समीक्षा, न प्रयोग. यह ढक्कन न तो केवल ढँकता है, न ही सिर्फ़ छिपाता है,यह निर्देश देता है, नियंत्रित करता
है और कभी-कभी तो संविधान की भावना को भी ‘स्टीम कुक’ कर देता है.
सरकारी कार्यालयों में भी ढक्कन
संस्कृति खूब फलती-फूलती है. वहां फाइलों पर ऐसा अदृश्य ढक्कन रखा जाता है कि वह वर्षों तक खुलती ही नहीं. विकास योजनाएं, जनहित याचिकाएं, यहां
तक कि शिकायतें भी ढक्कन के नीचे सड़ती रहती हैं, और हम समझते हैं कि ‘प्रक्रिया
में है’. राजनीति में तो ढक्कन का महत्व और भी
गहरा है. जब कोई घोटाला हो जाए, तो नेताओं की
पहली कोशिश होती है कि किसी तरह ढक्कन कस कर बंद कर दिया जाए,सत्य बाहर ना आ जाए और सवाल अंदर ही
दम तोड़ दें. नौकरशाही तंत्र तो ‘ढक्कन’ सिद्धांत
का सबसे सफल प्रयोग है. यहाँ हर समस्या को हल नहीं, बल्कि फाइलों के ढक्कन से ढँक दिया जाता है. कहीं सड़क टूट जाए? कोई बात नहीं,
फाइल में ढक्कन लगाओ, प्रस्ताव बनाओ, अनुमोदन भेजो, टेंडर रुको और तब तक जनता को
गड्ढों में झुलसने दो. वैसे हर गंध, हर आवाज, हर सवाल को ढक देने की पुरानी परंपरा
है. ढक्कन लगाओ और जनता को ठंडा रखो – भाप न निकले, शोर न हो.टीवी चैनलों पर अब खबरें
नहीं दिखाई जातीं, बल्कि ढक्कन चढ़ाए जाते हैं-सच के ऊपर, संवेदनाओं के ऊपर, और कभी-कभी तो संविधान के ऊपर
भी. कोई घोटाला हो? ढक्कन चढ़ा
दो – “देश खतरे में है”, “अंतरराष्ट्रीय षड्यंत्र है”, “सांस्कृतिक हमले हैं”. हर मुद्दे को
इतना उलझा दिया जाता है कि जनता को समझ नहीं आता कि असल बात क्या थी. ढक्कन से भाप रोकी जाती
है, और फिर उस भाप को 'TRP' के रूप में बेचा जाता है.अब तो सोशल मीडिया वह रसोई बन गई है जहाँ हर कोई ढक्कन
फेंकने के लिए तैयार बैठा है. किसी ने सरकार की आलोचना कर दी? “देशद्रोही”,
“टुकड़े-टुकड़े गैंग”, “फर्जी एक्टिविस्ट” जैसे शब्दों के ढक्कन उसके मुँह पर पटक
दिए जाते हैं. इसी क्रम में यह
कहा जा सकता है कि भारत में “भावनाएं आहत” होना भी एक सार्वजनिक कला बन चुकी है. अगर किसी ने फिल्म में कुछ
कह दिया, किसी किताब में कुछ लिख दिया, या किसी मूर्ति को नया रूप दे दिया तो
तुरन्त “भावना ढक्कन” सक्रिय हो जाता है.इन ढक्कनों की संवेदनशीलता इतनी तेज़ है कि वे माइक्रोवेव
में पॉपकॉर्न से भी पहले फट जाते हैं. विरोध प्रदर्शन, पोस्टर जलाना, नारेबाज़ी – सब कुछ शुरू हो
जाता है, लेकिन कोई ये नहीं पूछता कि वो ढक्कन किसने लगाया और किस मकसद से?
धर्म, जो हमारी चेतना को ऊँचाई तक ले जा
सकता था, उसे भी ढक्कनों से ढँक दिया गया है. यहां कोई साधु-संत यदि खुले दिमाग़
से बात करे, तो उस पर तुरंत 'धर्म भ्रष्ट’ का ढक्कन चढ़ा दिया जाता है. कहते हैं धर्म मुक्त करता है, लेकिन यहां धर्म से सवाल करना
तो क्या, सोचने की भी अनुमति नहीं. नये विचारक, सुधारक, या चिंतक जैसे ही जन्म लेते हैं , उन्हें या तो बहिष्कृत कर दिया जाता
है, या फिर 'ढक्कन-समाज' उन्हें कुचल देता है. यदि किसी ने किसी धार्मिक संस्था पर
सवाल उठाया? तो “संस्कृति विरोधी”, “पाश्चात्य एजेंडा”, “बिके हुए लोग” का ढक्कन
चिपका दिया जाता है. यहाँ बहस नहीं होती, बस
ढक्कन चलते हैं – एक से बढ़कर एक, रंगीन, खुशबूदार और सोशल मीडिया फॉलोअर्स के
स्वाद के अनुसार. वैसे लोकतंत्र में जनता
अगर ढक्कन हटाना भूल जाए तो सड़ांध पनपने लगती है. नौकरशाही, भ्रष्टाचार,
लालफीताशाही—ये सब ढक्कन की जड़ता के प्रतीक हैं. दमनकारी प्रवृत्ति द्वारा जब कभी
ढक्कन इतना कस जाता है कि अंदर भाप बन रही जनता की आवाज़ फूट पड़ती है और फिर
ढक्कन उड़ता भी है, कभी आंदोलन में, कभी मतदान में. इसलिए कृपया ढक्कन को हल्के में न
लीजिए. यह केवल स्टील या प्लास्टिक का नहीं
होता. यह सत्ता, समाज और सोच की गहराइयों
में फिट होता है!
यदि आप अब
भी सोच रहे हैं कि ढक्कन एक वस्तु है तो आप वास्तव में बहुत भोले हैं. यह हमारी संस्कृति,
समाज, व्यवस्था, आचरण और चेतना का संरक्षक, रक्षक और नियंत्रक है. अगर कृत्रिम बुद्धिमत्ता का युग सच में तेजी से आया, तो
सबसे पहले कौन प्रभावित होगा? ढक्कन! जी हाँ, जब मशीनें सोचने लगेंगी, तब
मनुष्य को अपने ढक्कन खोलने होंगे वरना वह “मानव” न रहकर केवल “ढक्कनधारी प्राणी” बनकर रह जाएगा. अतः अगली बार जब आप किसी
बर्तन को ढँकें, किसी बात पर चुप रहें, या किसी मुद्दे पर आंखें मूंदें – तो समझ
जाइए, आपने भी कहीं न कहीं कोई ढक्कन लगा ही दिया है. और जब कोई ढक्कन हटाने
की कोशिश करे – तो याद रखिए, भाप निकलेगी, छींटे भी पड़ेंगे, लेकिन शायद कहीं से
थोड़ी ताज़ा हवा भी आएगी. इसलिए यह कहना समीचीन प्रतीत होता है कि भविष्य में यदि कोई ‘ढक्कन कहीं का’ से संबोधित करे, तो खीज व्यक्त ना कर गर्वानुभूति
का अनुभव करें.
प्रभाष पाठक
सहायक सांख्यिकी पदाधिकारी
नीलकंठ नगर,नये बजरंगबली मंदिर के पास,
तिलकामांझी, भागलपुर, बिहार पिन 812001
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