पितरों
का अपने अपने घर लौटना-खुशी और श्रद्धा का पर्व.पूर्णमासी से अमावस्या तक कुल सोलह
दिन, घरों
से उठती पकवानों की खुशबू, पंडितों
का यजमानो के घर सजधज कर जाना ,दान
दक्षिणा ग्रहण करना, घर
की मुडेरों पर या छत पर कौवों की कावं कावं का बढ जाना यानि पितृपक्ष का प्रारम्भ
हो जाना. मानो वे पितरों के आने की
सूचना दे रहे हैं . अब क्या पता वे ही पितर रूप मे
पधारे
हों.घर के द्वार पर खड़ी गाय ग्रास के इन्तजार मे रम्भाती है और गली मे आवारा
कुत्तों की चहल पहल भी बढ जाती है.पितरों का आना सबको मालूम हो जाता है.क्योंकि
सबके हिस्से श्राद्ध वाले दिन जरूर निकलते हैं जिन्हें खाकर पितृगण तृप्त होते हैं
या पशुपक्षी ,मुझे
नहीं मालूम. मन्दिरों मे भी पकवानो के ढेर लग जाते हैं.
पुत्रों का कार्य
पितृगणों को तृप्त करना है. घर मे पूर्वजों की खट्टी मीठी यादों की जुगालियां होने
लगती हैं. चलो इसी बहाने यादों का दौर आ जाता है.उधर पितृगण भीसजधज कर अपने अपने
घर लौटने की भागमभाग मचाए रखते हैं. उन्हें भी चिन्ता रहती है कि समय से घर नहीं
पहुंचे तो उनका भाग कौन ग्रहण करेगा. जीते जी बेटे ने कभी एक सूखा टूक भी नहीं
दिया पर अब तर माल बनवाता है. चलो इसी बहाने तृप्त हो लेते हैं. ज्यादातर पितरों
के दुख इसी प्रकार के हैं.
किसी के बेटे ने घर
बदल लिया है.उसे हर साल किराए का घर बदलना पड़ता है,किसी के बेटे ने
पुराना घर बेचकर किसी पाश कालोनी मे नई कोठी बना ली है,किसी का बेटा नौकरी
के सिलसिले मे विदेश मे जा बैठा है और श्राद्ध कर्म को वाहियात मानता है.बहुतों को
अपने बच्चों के घर ही नहीं पता. कई बार ढूंढने की कोशिश भी की लेकिन घूमफिर कर लौट
आए.
हाँ इस ढूंढने
मे.इतना लाभ जरूर हुआ कि पड़ोसी और दोस्त जरूर मिल गये. सब मिल बैठ कर अपने अपने
घाव सहलाने लगे.सोचने लगे कि जिन्होंने जीते जी कभी दुख दर्द नहीं पूछा, भरपेट खाना नहीं
दिया, हमेशा
गलियाते और लताड़ते रहे-हम वहां क्यों जा रहे हैं. क्या उतने अपमान से पेट नहीं भरा?
पितृगणों की इस
रेलमपेल भागमभाग मे अचानक सुदर्शना अपने पति रमाकांत से टकरा गई. उन्हें भी
स्वर्गवासी हुये दसियों साल हो गये थे.लेकिन कभी आपस मे टकराए नहीं. आज टकराए तो
गलबहियाँ हुई ,फिर
गिले शिकवे और एक जगह बैठकर थोड़ी देर वार्तालाप-
सुदर्शना-"कहां दौड़े जा रहे हैं?"
"वहीं अमर के
पास"
"वह.तो विदेश मे
है"
"तुम्हें कैसे
पता"?
"मुझे एअरपोर्ट के
बाहर बिठाकर यह कहकर चला गया कि तुम जरा बैठो ,मैं अभी टिकट लेकर
आता हूं."
मैं अगले दिन तक
वहीं बैठी रही. वह लौटा ही नहीं. हर एक से पूछती रही. वहीं किसी ने बताया कि आपका
बेटा तो बीबी बच्चों के साथ इंग्लैंड गया. पूछती पूछती घर लौटी तो वहां किसी और को
पाया. ठगी सी खड़ी रह गई.
उन्होंने ही बताया
कि अमर घर उन्हें बेच गया है.मै तो सड़क पर ही आ गई थी.पर जिन्होंने घर खरीदा था
उन्होंने
बाहर वाली बैठक यह कहकर रहने को दे दी कि आप जबतक चाहें यहां रह सकती हैं. वह तो
गनीमत रही कि कुछ पैसे बैंक खाते मे थे जिनका अमर को पता नहीं था.
"तुमने तो बड़ा कष्ट
झेला?"
"तुमने भी कभी सुख
नहीं दिया. सब कुछ अपने बेटे को दिया."
"अभी तक ताने मारने
की आदत नहीं गई."
"हां अब मुझे चलना
चाहिए. ज्यादा देर तक एक जगह रुक नहीं सकते. तुम तो
इंग्लैंड जा रहे होगे?"सुदर्शना कहते कहते अपनी राह चली गई.
तभी पीछे से एक आवाज आई ,"मैं तो वृद्धाश्रम मे मरी","मै बेटी के यहां.
दामाद सारे समय कौंचता रहता जबकि सब कुछ उसे. सौंप दिया"
"मै तो सड़क पर कूड़ा
बीनते मरी."
"फिर कहां जा रही हो?"एक आवाज ने सवाल
उछाला.
"कहीं
नहीं. हम भी तुम्हारी तरह सैर को निकल पड़े। आना जाना कहीं नहीं है.जहां हैं वहीं
तृप्त हैं.'
"हमें विगत जीवन याद दिला कर नश्तर
लगाने के लिए"-एक दुखी आवाज उभरी.
इसी प्रकार सुख दुख झेलते ,बोलते सब अपना
पिछला जीवन याद करते स्वर्ग लौट जाते हैं अगले साल के लिए.
सुधा
गोयल,290-ए,कृष्णा नगर
डॉ० दत्ता लेन,बुलन्दशहर 203001
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