सीधी रीढ़

अरुणिता
By -
0

गहरी काली चाय में दूध और शक्कर मिलाते हुए वो आसमान की ओर देख रही थी।

-मानस! सूरज ढलने और शाम गहराने के समय जो आसमान की आभा होती है कितनी अच्छी लगती है न! कहीं लालिमा,कहीं झक सफेद से बादल।मानो आकाश में रंगोत्सव चल रहा हो।

आह! मुझे तो इन प्राकृतिक छटाओं में खो जाने का दिल करता है। इससे मुझे अथाह खुशी मिलती है।

-हम्म! कभी-कभी तुम्हारी बात मान लेनी चाहिए मुझे ऐसा महसूस होता है। संतुलन आवश्यक है जीवन में।

-अच्छा!-क्या बात है बड़े उखड़े से लग रहे हैं आप..?

रजनी मानस की ओर चाय का कप बढ़ाते हुए बोली।

-हम्म!बस ऐसे ही। कोई खास बात नहीं।कुछ है जो चुभ रही है।

-क्या ! बताओ भी, इससे पहले तुमने इस तरह की बात नहीं किया करते थे।हम दोनों ने एक-दूसरे को कभी बांधा नहीं मगर  हर बात साझा तो की है। बताओ क्यूं परेशान हो..?

-रजनी! आजकल लोग कुछ ज्यादा ही व्यस्त हो गए हैं। है न! मैं सबके लिए हमेशा उपलब्ध रहता था तो बातें होती रहती थी मगर इस बार मेरी व्यस्तता को किसी ने नहीं समझा।

-ओह!तो ये बात है। ईश्वर ने आदमी को ही इतना सशक्त बनाया है कि वो समझ सके कहां कितना झुकना चाहिए।

 

सपना चन्द्रा 

कहलगांव भागलपुर बिहार 

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें (0)

#buttons=(Ok, Go it!) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Check Out
Ok, Go it!