बाजार में खरीदारी कर, रोड किनारे हाथ में हेलमेट पकड़े बाइक के सामने अभी खड़ा ही हुआ था कि पचास पचपन का एक अधेड़ हाथ जोड़े मेरे सामने आकर खड़ा हो गया । आंखों पर मोटे फ्रेम का चश्मा और कमीज़ की ऊपरी जेब में एक मामूली सी कलम, किसी आफिस का मामूली किरानी जान पड़ता था ।
" कहिए, इस तरह हाथ जोड़ने का क्या मतलब...?" मैंने जानना
चाहा ।
" शायद आप यकीन नहीं करेंगे,मै के.बी.कॉलेज का स्टाफ हूं.!”
" यह बात, आप मुझे क्यों बता रहे है..?"
" मै ऑटो रिक्शा से फुसरो पहुंचा...!"
" तो..?"
" मेरा पर्स किसी ने मार लिया या ऑटो रिक्शा पर चढ़ते वक्त गिर
गया...!"
" तो.. मै उसे ढूंढने जाऊं? या इसके लिए मैं जिम्मेवार हूं..?” मै कुछ अनमना सा हो उठा
था ।
“ मुझे थोड़ी आपकी मदद चाहिए…!” उसने रोनी सूरत बना ली
मैंने पहली बार उसे ऊपर से नीचे तक निहारा । साधारण वेश भूषा ! धूसर
रंग का खुला हाफ स्वेटर पहने वो कहीं से मुझे छल-कपट और काइंया टाइप का नहीं लगा ।
सहसा मुझे बीस साल पहले का प्रेम दसौंधी की याद आ गई । तब मै के बी कालेज का
छात्र हुआ करता था और प्रेम दसौंधी कालेज का किरानी था-मतलब आफिस स्टाफ । वह हर
दिन सुबह तेलों स्टेशन में ट्रेन पकड़ता और जारंगडीह स्टेशन में उतरता फिर तीन किलोमीटर पैदल चलकर कालेज पहुंचता था ।
वह भी इसी तरह मोटे फ्रेम का चश्मा पहनता था और मामूली कंपनी का मामूली सी कलम
अपनी शर्ट की ऊपरी जेब में हमेशा खोंसे रखता था ।
मै अपने घर से हर दिन बीस किलोमीटर साइकिल चला कर कालेज पहुंचता था ।
किसी किसी दिन राह चलते दसौंधी दादा को भी अपनी साइकिल की पिछली सीट पर बिठा लेता
था । बदले में कालेज लाइब्रेरी से हमें पढ़ने को ढेर सारे नोटस मिल जाते थे
। इस कारण दोनों के बीच ददा-भैया वाला रिश्ता बन आया था । इस आदमी ने खुद को के बी
कालेज का स्टाफ बता कर अकस्मात मुझे दसौंधी दादा की याद दिला दी थी, जिसे मै भूल
चुका था और जो अब इस दुनिया में जीवित नहीं थे...!
वह अब भी मेरे सामने हाथ जोड़े सुदामा सा दीन-भाव की मुद्रा में खड़ा
था और रोड पर लोगों का आवा-जाही जारी थीं । ऐसे मौके पर अक्सर मै धोखा खाता रहा
हूं । भावुक-भावुकता और भावनाओं का शिकार अब तक मै कई बार हो चुका हूं । लोग याचक
बन कर पास आते हैं और रो-गाकर कर्ण की तरह मुझे लूट कर चले जाते रहे हैं । और ऐसे
वक्त मां की कही बातें अक्सर मुझे कर्ण की तरह ही धर्म संकट में डाल देती रही है
-" जब भी घर में कोई भूखा-नंगा आ जाए, या कहीं मिल जाए,कुत्तों की माफिक उसे
कभी दुत्कारना नहीं, जो हो सके, देकर ही भेजना,आदमी की दशा बदलते देर नहीं लगती
..!" और मां के इस संस्कार को अब तक निभाए जा रहा हूं।
" तो.. मुझसे आप क्या चाहते है..?" अन्ततः मै ही पूछ बैठा
था ।
" घर.. कतरास, जाने भर की किराया..दे दीजिए.. बड़ी मेहरबानी
होगी आपकी..!"
" कितने.. किराया है..कतरास की..?"
" चालिस.. रूपए..!" अब भी उसका हाथ जुडा हुआ था, जैसे ठान
लिया हो,जो मिले लेकर ही हटना है सामने से !
देना ही था,देर करना मुनासिब नहीं लगा । पीछे पॉकेट से पर्स निकाला
और पैसे निकालने लगा । तालाब किनारे घात लगाए खड़े बगुले की तरह उसकी आंखें चमक
उठी । इतने में चालिस रूपए मैंने उसकी ओर बढ़ा दिये । उतनी ही फुर्ती से उसने
बीस-बीस के दो नोट को पकडे और जोड़े हाथ कहने लगा-" भगवान आपको सदा सलामत
रखे, मां बाप का आशीर्वाद आपको मिलता रहे....!" फिर तेजी से वह बस
पड़ाव की ओर बढ़ गया था । दूर तक मेरी आंखें उसका पीछा करती रही । कुछ ही देर में
वह भीड़ में ओझल हो गया और मेरी नज़रों से भी । हमेशा की तरह मेरे मन को
शकून मिला । पहले प्रेम दसौंधी को याद किया फिर मां को याद करते हुए कहा-"
मां, आज फिर आपका बेटा एक मजबूर के काम आया..!"
थोड़ी देर बाद मै भी चल पड़ा था। परन्तु मेरी आंखें अब भी
उसको ढूंढती हुई जा रही थी-जाने क्यों ! तभी मै चौंक उठा था । पहले तो यकीन
नहीं हुआ कि वो- वही आदमी है ! रूक कर फिर गौर से देखा । हां, वही वेश
भूषा, वही मोटे फ्रेम वाला चश्मा और वही धूसर रंग का खुला हाफ स्वेटर.अरे. बिल्कुल
वही था । अभी अभी वह एक फर्नीचर वाले दुकानदार से डांट खायी थी " कोई
काम-धंधा नहीं मिलता ? इस तरह मुंह उठाए चले आते हो, यह दुकान है कोई दान आश्रम
नहीं.चल जा.!"
इस झिड़की के बाद वह आगे बढ़ा, अबकी वह एक छुट भैया नेता के सामने
उसी भाव मुद्रा में खड़ा हो गया। उसका हाथ जोड़ने का अंदाज बड़ा निराला था ।
" अरे आज अकेले ! बेटी कहां है...?"उसने सीधे मुंह पूछ
डाला ।
" उसकी तबियत ठीक नहीं है.नेता जी...!"
" झूठ बोलोगे हमसे, अभी अभी उसे रेलवे स्टेशन के बाहर लोगों के
सामने दांत निपोरते देख कर आ रहा हूं..!”
वह और वहां नहीं रूका । तेजी से भागता हुआ ओभर ब्रीज के
पास पहुंचा और एक सफेद
रंग के स्कॉरपियो के सामने हाथ जोड़े खड़ा हो गया । मै भी उसका पीछा करते हुए उससे
थोड़ी दूर में आकर खड़ा हो गया था । मंहगी गाड़ी की ठाठ-बाट देख मैंने अन्दर झांका
। पहचान का निकला । शहर का एक बड़े सिविल
ठेकेदार नौरंगी लाल बैठा हुआ था। गाड़ी के अंदर से ही उसने उससे कहा-" मुफ्त
की खाने की आदत छोड़ो और किसी के यहां काम पर लग जाओ..! “ बगल बैठे साथी की ओर
देखा-“ “ इन स्यालों को देखता हूं तो मूड खराब हो जाता.है..अरे बढ़ाओ.. गाड़ी..!” खिझ कर ड्राइवर से कहा था
उसने ।
स्कॉर्पियो आगे बढ़ी तो मैं बाइक खड़ी कर उसके आगे आ गया ।
मुझे देखते ही वह नज़रें चुराने लगा । लेकिन अगले ही पल ढीठ का स्वेटर पहन निर्विकार भाव से वह
खड़ा हो गया था- चालिस रूपए देने वाले की ऐसी की तैसी-कौन चार हजार दे दिया है !
उसका भाव-भंगिमा यही बता रहा था । तब झिड़कते हुए मैंने कहा था-" तो यह है,के.बी कालेज के नकली स्टाफ
का असली रूप ! लोगों के विश्वास और भरोसे के साथ इस तरह खिलवाड़ करते हुए तुझे जरा भी शर्म नहीं आती है
? आज तुझ जैसे लोगों के कारण ही लोगों का लोगों से विश्वास उठता जा रहा है ।
दीन-दुखियों को भीख नहीं मिल रही है.अरे.जिस सेठ से अभी तूमने डांट खाई,उसी से कहता कि सेठ दुकान
में रख लो, सब काम कर दूंगा.. लेकिन तुम तो काम करोगे नहीं.. मुफ्त खोरी और काम चोरी
की बीमारी लग चुकी है- तुम्हारी देह को..! थुह.. है..तेरी इस तरह रेंगने वाली
जिंदगी पर....!" इसके साथ ही मैंने भी बाइक स्टार्ट की और
आगे बढ़ गया ! लूकिंग ग्लास में देखा, अवाक खड़ा वह मुझे दूर तक
देखता रहा..!
सप्ताह दिन बाद फिर मुझे एक जरूरी काम से फुसरो जाना पड़ा । फर्नीचर दुकान
के सामने से गुजर रहा था कि तभी अचानक कानों में आवाज पड़ी-“ प्रणाम सर !”
बाइक रोकी गर्दन घुमाकर उधर देखा, वही के.बी कालेज का नकली स्टाफ
उसी फर्नीचर दुकानदार की दुकान में कपड़े से कुर्सी-आलमिरों की धूल-गर्दा झाड़ रहा
था !
“ यह हुई इज्जत की जिंदगी..!” बाइक से उतर कर मैंने कहा था ।
“ बेटी को भी उस धंधे से हटा दिया है, सेठ जी ने उसे अग्रवाल
नर्सिंग होम में रखवा दिए है,वह भी दवा-सूई करना सीख जाएगी, आपका बहुत बहुत धन्यवाद
सर…!” उसने हाथ जोड़ लिया था ।
मेरा मन गदगद हो उठा था । एक बार फिर अपनी मरहूम मां को मैंने याद
किया और मुस्करा कर आगे बढ़ गया था ।
श्यामल बिहारी महतो
बोकारो, झारखंड
फोन नं 6204131994