तृप्ति बोलो

अरुणिता
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कोशिशें की सर्वदा तुमसे मिलन की लाख लेकिन-

दूर ही मुझसे रही क्यों? खिन्न होकर, तृप्ति बोलो!


तुम रहा करती हो पुष्पित पुष्प के सौंदर्य में नित,

इसलिए मैं हर सवेरे बाग में मिलने गया हूँ।

भिन्न पुष्पों से सुशोभित, भिन्न खुशबू से सुवासित,

वाटिका सौंदर्य को मैं देखकर विस्मित रहा हूँ।

किन्तु अधिकृत इक सुमन में वास तुम करती नहीं हो-

क्यों? भला रहती सभी में भिन्न होकर, तृप्ति बोलो!


तृप्ति तुम मुझको मिलोगी अंक माँ के इसलिए ही,

बचपने में गोद उसकी त्यागता किञ्चित नहीं था।

तुम मिलोगी साथियों के खेल में मुझसे विहँसकर,

इसलिए ही साथ उनका छोड़ता किञ्चित नहीं था।

हाय! यौवन में तुम्हें तिय देह में ढूंढा बहुत पर-

खो बुजुर्गी में गईं तुम छिन्न होकर, तृप्ति बोलो!


लोग कहते द्रव्य में उपलब्ध तुम रहती हमेशा-

इसलिए मैं वित्त पाने भागता-फिरता रहा हूँ।

ज्ञात मुझको जब हुआ तुम यश-प्रतिष्ठा वासिनी हो-

नींद खोकर, चैन खोकर जागता फिरता रहा हूँ।

आज भी तुम जिंदगी में मिल कहीं जाओ अतः मैं-

नाचता हूँ, रोज तानाधिन्न होकर, तृप्ति बोलो!


भाऊराव महंत

बालाघाट, मध्यप्रदेश


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