बावला मन

अरुणिता
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मन मेरा बावला है सखी!

माने ना, इत- उत उड़ जाए...

मैं भागूँ पीछे- पीछे इसके,

हाथ मेरे ये कभी ना आए...!

 

कब भला ये किसी की सुनता है,

नित ख़्वाब नए कुछ बुनता है...

उन ख़्वाबों में फिर ख़ुद ही,

दिलकश रंग ये भरता है...!

 

दुर्गम बहुत है जीवन की राहें,

 

ये राहें जब मुझको उलझाए...

ये पागल मन ही तो उम्मीद बनकर,

हर उलझन को पल में सुलझाए!

 

हवा की चंचलता व्याप्त है इसमें,

विस्तृत नभ भी इसके अंदर समा जाए...

इसके बिन जीवन सूना- सूना,

दुनिया में जीना ये मुझको सिखलाए...!

 

मेरी ख़ुशी में झूमे नाचे,

मेरे गम में आँसू बन छलक जाए...

मन मेरा बावला है सखी!

माने ना, इत- उत उड़ जाए...!

अनिता सिंह

देवघर, झारखण्ड

 

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