सुकूँ की तलाश

अरुणिता
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 कहीं ना जा रे इंसां सूकूँ ओ तलाश में,

ना ढूंढ यहाँ-वहाँ, शहर-गाँव की गलियों में।

बैठ जरा अपने परिवार संग,

है वहीं कहीं वो उन्हीं की खट्टी-मीठी बातों में।

 

कहीं ना भटक रे इंसां सूकूँ ओ तलाश में,

बन कर भँवरा फूल-फूल सारे बाग में।

नज़र फिरा जरा अपने ही आस-पास में,

है वहीं कहीं वो तेरे ही मित्र के प्यार में।

 

कहीं ना जा रे इंसां सूकूँ ओ तलाश में,

ज़मीं से आसमाँ, सागर से पर्वत तलक।

ले झाँक ज़रा स्वयं के भीतर,

है वहीं कहीं वो हृदय के किसी कोने तलक।

 

माना कि मुश्किल बहुत है ज़िन्दगी,

है गर आशीर्वादों की छत, दुआओं की दाल-रोटी।

अपनों का साथ, "ऋतुज" स्वयं पर विश्वास,

फिर क्यों दरबदर भटके रे नादान,

यही तो है सूकूँ का जहान।

 

ऋतु अवस्थी त्रिपाठी

इन्दौर, मध्यप्रदेश 

 

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