क्यूँकि मैं स्त्री हूँ

अरुणिता
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 मैं कुछ भी फेंक नही पाती

हर बार सहेज जाती  हूँ |

 

ना रात के बचे खानों को

ना पुराने हो चुके बहानों को

 

ना पुराने फीके पड़े कपड़ो को

ना बरसों से मौन खामोश झगड़ो को

 

ना कड़वी मीठी बातों को

ना सुहानी या खट्टी यादों को

 

ना अपने रीति रिवाजों को

ना पुरानी किताबों को

 

ना खाली बोतल अखबार को

ना नर्म पड़े बिस्कुट और पुराने आचार को

 

ना बच्चों के पुराने खिलोने को

ना उनके छोटे कपड़े और बिचोने को

 

ना पुराने खत और सूखे फूल को

ना पति की किसी भी भूल को

 

ना पुराने दाल और पापड़ बड़ी को

ना बाबू जी का चश्मा और छड़ी को

 

क्यूँकि  मैं स्त्री  हूँ |

घर रूपी गाड़ी की एकमात्र मिस्री  हूँ |

 

रखती  हूँ  सब कुछ सहेज कर।

काम आएगा सब कभी इस उम्मीद पर।

प्रज्ञा पाण्डेय (मनु)

वापी,  गुजरात

 

 

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