राष्टृ के पुनरुत्थान में साहित्य की भूमिका

अरुणिता
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    यदि किसी राष्ट्र की सभ्यता को जानना है तो उस राष्ट्र की संस्कृति एवं साहित्य का अध्ययन करना होगा। साहित्य किसी भी राष्ट्र का दर्पण होता है। जिस राष्ट्र का साहित्य समृद्ध होता है वह राष्टृ भी उतना ही समृद्ध होता है।साहित्य के सम्बन्ध में एक उक्ति है-" स: हितकर:इति साहित्य" । साहित्य की उपादेयता इसी बात पर निर्भर करती है कि वह राष्टृ के पुनरुत्थान में कितना हितकारी है। भारत का गौरवशाली इतिहास है कि भारत सनातन काल से ही साहित्य सम्पन्न रहा है। वेद,पुराण, उपनिषद ,आरण्यक, ब्राह्मण ग्रन्थ इत्यादि स्वर्णिम साहित्य है जिसने भारत को विश्व गुरु की उपाधि से तो विभूषित किया ही साथ ही इसकी स्वर्णिम आभा को देदीप्यमान भी किया। नारी को राष्टृ में एक गौरवशाली स्थान प्रदान करने का श्रेय साहित्य को ही जाता है । हमारे साहित्य ने "यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवता" "कहकर नारी का महिमा मंडन किया।

राष्ट्र के पुनरुत्थान में साहित्य की केन्द्रीय भूमिका होती है क्योंकि यह राष्ट्र को दिशा बोध कराता है।यह तत्कालीन विसंगतियों, विद्रूपताओं, राजनीतिक परिवर्तनों को रेखांकित कर समाज को सार्थक और सकारात्मक संदेश देता है।

राष्टृकवि मैथिलीशरण गुप्त जी कहते है-

" केवल मनोरंजन न केवल कवि का मर्म होना चाहिए

 उसमें उचित उपदेश का भी मर्म होना चाहिए""

उत्कृष्ट साहित्य स्वभाव से ही प्रगतिशील होने के साथ  न केवल समाज की समस्याओं को रेखांकित करता है बल्कि एक नई व्यवस्था का सूत्रपात करने में भी सहायक होता है। दुनिया में जहां कहीं भी सामाजिक राजनीतिक परिवर्तन हुआ है उसमें साहित्य की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। प्रसिद्ध कथाकार प्रेमचंद जी ने कहा है-" साहित्यकार देशभक्ति और राजनीति के पीछे चलने वाली सच्चाई नहीं अपितु उसके आगे मशाल दिखाती हुई सच्चाई है।" साहित्य की तीन विशेषताएं  होती है। साहित्य अपने अतीत से प्रेरणा लेता है, वर्तमान का सफल चित्राकंन करता है, भविष्य का मार्गदर्शन भी साहित्य करता है। जिस प्रकार से दर्पण मानव की बाह्य आकृति, विकृति को दिखाता है उसी प्रकार से साहित्य राष्टृ की आंतरिक अच्छाइयों और बुराइयों को दृष्टिगोचर करता है। 

         साहित्यकार द्वारा जनता के हित में कार्य करने के लिए शासन सत्ता को प्रेरित किया जाता है। लोकोन्मुखी नेतृत्व के संदर्भ में ऐसा ही विचार भारतीय राजनीति के गुरु चाणक्य का रहा है। वे कहते है कि प्रजा के सुख में ही राजा का हित है, स्वयं को प्रिय लगने में राजा का हित नहीं।

      "प्रजा सुखे सुखं राज्ञ: प्रजानां तुम हिते हितम् ।

       न आत्माप्रियं हितं राज्ञ: प्रजानाम् तु प्रियं हितम् ।।

प्राचीन साहित्य वेदों, उपनिषदों में भी इस विचारधारा को उकेरा गया है। विश्व में जितनी भी क्रांतियां हुई है,चाहे वह फ्रांस की क्रांति हो या रूस की अथवा भारत का स्वतंत्रता संग्राम,इन क्रांतियों को जाग्रत करने में साहित्य की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। स्वतंत्रता आन्दोलन में साहित्यकारों ने अपनी रचनाओं के माध्यम से नागरिकों में राष्टृ के पुनरुत्थान में असीम उत्साह एवं एकता का संचार किया। हिन्दी के प्रसिद्ध साहित्यकार जयशंकर प्रसाद द्वारा औपनिवेशिक शोषण से मुक्ति के लिए भारतवासियों का आह्वान किया-

    हिमाद्रि तुंग श्रृंग से, प्रबुद्ध शुद्ध भारती।

    स्वयंप्रभा समुज्ज्वला, स्वतंत्रता पुकारती।।

राष्टृ से सांप्रदायिक वैमनस्य, जातिवाद, स्त्रियों की दयनीय स्थिति, धार्मिक रूढ़िवाद एवं कुरीतियां जैसी समस्यायों पर साहित्य ने कुठाराघात किया। राष्ट्र को उन्नति के पथ पर तभी ले जाया जा सकता है जब इन बुराइयों को समाज से दूर किया जाए। कबीर दास जी कहते है-

    हिंदू कहत राम हमारा, मुसलमान रहमाना ।

    आपस में दोऊ लडै मरत  है,मरम कोई नहीं जाना।।

नैतिक मूल्य किसी भी राष्ट्र और संस्कृति के आधारभूत सिद्धांत होते हैं। साहित्य जिन मानव मूल्यों को ग्रहण करके उनके स्वरूप को अभिव्यक्त करता है वह जन जन की वाणी बन जाता है।

       परहित सरिस धर्म नहिं भाई,

       परपीडा सम नहिं अधमाई।

वसुधैव कुटुंबकम् की संस्कृति भारतीय सभ्यता की कहानी को बताती है। इस प्रकार की विचारधारा किसी भी राष्ट्र को क्षितिज तक आलोकित करने में सक्षम है।

       अयं निज:परोवेति, गणना लघु चेतसाम् ।

       उदारचरितानां तु, वसुधैव कुटुंबकम् ।।

लेखनी में वह ताकत होती है जो समाज को आईना दिखा सकती हैं। मैथिलीशरण गुप्त जी ने समाज को देशभक्ति का संदेश देते हुए लिखा है कि

जो भरा नहीं है भाव से, बहती जिसमें रसधार नहीं

हृदय नहीं वह पत्थर है जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं

वहीं दूसरी ओर उनका साहित्य मनुष्य को कार्य करने की प्रेरणा देता है।

कुछ काम करो, कुछ काम करो,जग में रहकर कुछ नाम करो

यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो,समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो

साहित्य से जिन बृहद अथवा सार्थक उत्तरदायित्वों की अपेक्षा की जाती है उससे व्यवस्था को तो स्थायित्व प्राप्त होता ही है साथ ही आधारभूत मूल्यों के द्वारा वांछित दिशानिर्देश भी प्राप्त होते हैं। मुंशी प्रेमचंद जी का साहित्य समाज के निर्धन लोगों की समस्याओं को रेखांकित करता है जिससे नीति नियंताओं का ध्यान उस ओर गया और दलित वंचित वर्ग की उन्नति के लिए प्रयास किए गए। प्रेमचंद जी कहते हैं" जो दलित है, पीड़ित हैं,संत्रस्त है, उसकी साहित्य के माध्यम से हिमायत करना साहित्यकार का नैतिक कर्तव्य है।"

         इस प्रकार हम कह सकते हैं कि राष्ट्र के पुनरुत्थान में  साहित्य अपने उत्तरदायित्व को समझकर सनातन काल से ही बृहद भूमिका का निर्वहन कर रहा है।


अलका शर्मा

शामली, उत्तर प्रदेश

 

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