“प्रत्येक सिक्के के दो पहलू होते है” यह कथन हमारे जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में प्रत्यक्ष और अप्रत्क्ष दोनों तरह से सामान रूप में लागू होता हैं। चाहे वह हमारे रोजमर्रा के जीवन में चल रही घटनाएं, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी,मनुष्य के क्रियाकलाप या उसके मनोरंजनकारी उपकरण जैसे-सिनेमा,ऑनलाइन गेमिंग इत्यादि ही क्यों न हो। मनुष्य ने ज्ञान प्राप्ति,धन प्राप्ति,यश प्राप्ति,”बहुजन हिताय”,”बहुजन सुखाय”,आनंद, अपने अंतर्मन को बहिर्जगत के समक्ष प्रस्तुत करने तथा हमेशा के लिए अमर हो जाने की तीव्र इच्छा से साहित्य की रचना की। साहित्य में वे अपने आस-पास के वातावरण में घटित घटनाओं को अपने दृष्टिकोण के अनुसार व्याख्यायित करते चले गए। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के शब्दों में- “जबकि प्रत्येक देश का साहित्य वहां की जनता की चित्तवृति का संचित प्रतिबिंब होता है, —--×—--×—--×—-- जनता की चित्तवृति का बहुत कुछ राजनीतिक, सामाजिक, साम्प्रदायिक तथा धार्मिक परिस्थिति के अनुसार होती है।”1 परन्तु प्रत्येक काल की अपनी कुछ सीमाएं भी होती हैं जो कालगत, परिस्थितिगत व दृष्टिकोणगत उस काल के साहित्य में छिपी रह जाती है जिसे हम सिक्के के 'दूसरे पहलु' के रूप में देख सकते हैं।
हिंदी साहित्य
को सामान्यतः चार कालों में विभाजित किया गया है जिसके पहले कालखंड को आदिकाल कहा जाता
है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने इसकी समय सीमा 1050 संवत से 1375 संवत तक माना है। यह
कालखंड भारतीय इतिहास का सर्वाधिक उथल – पुथल भरा कालखंड रहा है। इस काल की समाजिक,
आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक तथा सांस्कृतिक परिवेश ने आदिकाल की कुछ सीमाएं भी निर्धारित
कर दी है। इन सीमाओं को हम दो वर्गों में विभाजित कर देख सकते हैं, पहला – संवेदनागत
सीमाएं तथा दूसरा – शैलीगत सीमाएं।
संवेदनागत
सीमाओं में आदिकालिन साहित्य में प्रचलित नारी दृष्टिकोण, इतिहास का अप्रमाणिक तरीके
से प्रयोग, समाजिक जनजीवन से कटाव, राष्ट्रीय व व्यापक चेतना का अभाव तथा भक्ति भावना
में अश्लीलता जैसे तथ्य सामने आते है।
आदिकालिन
साहित्य में नारी के प्रति असंतुलित नज़रिया सामने आता है। सिद्धों ने नारी को ' भोग्य
' माना तो ' त्याज्य’ नाथों और जैनों ने । सिद्धों ने साधनामार्ग के रूप में ' पंचमकार
' पद्धति को स्वीकार किया है। पंचमकार का अर्थ — मत्स्य, मदिरा, मांस, मुद्रा तथा मैथुन
है। इनकी मान्यता अनुसार सुखों का चरम भोग कर मन को ऐसी स्थिति में लाया जा सकता है
जहां वह आकर्षण से मुक्त हो जाए। यहां सुखों का भोग साधन मूलक है जिसमें नारी भी भोग्य
वस्तु है। नारी के सम्बन्ध में सिद्ध कण्हपा कहते है कि — “जब तक अपनी गृहणी का उपभोग न करेगा तब तक पंचवर्ण स्त्रियों के साथ
विहार क्या करेगा?”2 तो वही गोरखनाथ कहते हैं —
“ नौ लख पातरि आगै नाचै, पीछै सहज अखाड़ा।
ऐसो मन लै जोगी खेलै, तब अंतरि बसै
भंडारा।।”3
अर्थात — भोग्य
पदार्थों (पतुरियों) के सम्मुख रहते हुए भी जो योगी उसे त्याज्य भाव से देखता है उसका
भीतरी भंडार भरपूर होता है। चंदबरदाई ने ' पृथ्वीराजरासो ' में भी स्त्री को वस्तु
रूप में ही देखा हैं जो उनके इस पंक्ति से सिद्ध होता है —
“जाकी
कन्या सुंदर देखी तापे धरि जाए तलवार।”
अतः आदिकाल में “नारी भी
भोग्या मात्र रह गई थी। वह क्रय - विक्रय एवं अपहरण की वस्तु बनती
जा रही थी।”4
इस
काल के अधिकांश साहित्य मठों और दरबारों तक ही सीमित होकर रह गया , वह आम जनजीवन से स्वयं को दूर बनाएं रखा। तत्कालीन समय निरंतर
युद्धों और संघर्षों का युग रहा है जिसके कारण दरबारी कवि राजाओं के वीरत्व को बनाएं
रखने के लिए वीर काव्य रचते चले गए जो आदिकाल की मूल पहचान बनी और आचार्य रामचन्द्र
शुक्ल ने इस काल का नामकरण “वीरगाथा काल” ही रख दिया। वीर काव्यों में “परमाल रासो”
अपना अलग ही स्थान बनाया है। इसकी एक पंक्ति ही इसकी प्रसिद्धि के कारण को सिद्ध करने
के लिए यथेष्ठ है —
“ बारह बरस
लौ कुकर जीवैं, अरु तेरह लौ जियै सियार।
बरस अठारह क्षत्रिय जीवैं, आगे जीवन को धिक्कार।।”5
लेकिन इसके परिणामस्वरूप आम जनता तथा उनकी समस्याएं दरबारी कवियों
के रचना जगत के बाहर ही हो गई। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के शब्दों में — “जीवन की स्वाभाविक अनुभूतियों और दशाओं से उनका
कोई संबंध नहीं ।”6 वीर काव्यों की अतिशयोक्तिता भी इस काव्य
को कमजोर बना देती है। दरबारी कवियों ने अपने संरक्षक के वीर बखान में अतिशयोक्ति कर
दी है। जैसे चंदबरदाई का वर्णन है कि पृथ्वीराज चौहान ने बिना देखे उनके संकेतों को
समझकर बाण से गोरी की हत्या कर दी जो व्यावहारिक प्रतीत नहीं होती।
भक्ति - भावना में अश्लीलता का मिश्रण इसी काल में शुरू हुआ। जयदेव के ' गीतगोविंद'
की परंपरा में विद्यापति ने ' पदावली’ की रचना की, जिसपर अश्लीलता का आरोप लगता आ रहा
है। विद्यापति के पदावलियों के सम्बन्ध में आचार्य शुक्ल ने स्पष्ट कहा है — “आध्यात्मिक रंग के चश्मे आजकल बहुत सस्ते हो गए
हैं। उन्हें चढ़ाकर जैसे कुछ लोगों ने ' गीतगोविंद ' के पदों को आध्यात्मिक संकेत बताया
है, वैसे ही विद्यापति के इन पदों को भी।”7
आदिकाल
के सिद्ध तथा नाथ कवियों ने अपनी ' अंतःसाधना' पद्धति को प्रतीकात्मक शब्द में व्यक्त
करने की एक शैली विकसित की जिसे ' संधा भाषा
' कहा जाता है।जिस प्रकार सांझ के समय वस्तुएँ साफ नज़र नहीं आती कुछ धुंधलापन बना रहता
है; वैसे ही संधा भाषा अपने जटिल प्रतीकों के कारण रहस्यात्मक वातावरण रचती है और पाठक
अर्थ निर्धारण की प्रक्रिया में धुंधलापन महसूस करता है।सिद्धों और नाथों ने संधा भाषा
का प्रयोग इसलिए किया क्योंकि असाधारण व विशिष्ट रहस्यात्मक अनुभवों को साधारण भाषा
में व्यक्त करना संभव नहीं होता; ऐसी अनुभूतियों को 'गूंगे का गुड़' कहके टाला जा सकता
है या नए तथा अनगढ़ प्रतीकों में ही व्यक्त किया जा सकता है। यह प्रतीकात्मक भाषा अत्यंत
जटिल होने के कारण तत्कालीन और वर्तमान समय के सामान्य पाठकों को इनके साहित्यों का सही अर्थ समझने में कठिनाई होती
है जिससे यह साहित्य सीमित हो गया और आम जन
पाठकों से दूर हो गया। जैसे सिद्धों
में — “गंगा जउॅंना माझे बहई रे नाई” जिसका
तात्पर्य — ' इला - पिंगला' के बीच ' सुषुम्ना नाड़ी ' के मार्ग से ' शून्य देश ' की
ओर यात्रा से है। यहां गंगा का अर्थ इला नाड़ी, जाऊना(यमुना) का अर्थ पिंगला नाड़ी
से है।
नाथों
में हठयोग, षट्चक्र भेदन, कुंडलिनी, महाकुंडलिनी जैसे तकनीकी शब्द तथा जटिल प्रक्रिया
का उपदेश इसी संधा भाषा में दिया जाता था जो आम जन के लिए समझना दुष्कर है । बाद में
यही संधा भाषा कबीर के यहां ' उलटबांसी ‘ बन गई। एक उलटबांसी का उदाहरण निम्नलिखित
है —
“ऐसा अद्भुत
मेरा गुरु कथ्या, मैं रह्या उमेपै।
मूसा हस्ती सौ लड़ैत कोई विरला
पेपै।।
—---×—---×—---×—--
चींटी परवत
उपण्या ले राख्यौ चौड़ै।
मूर्गा मिनकी सूॅं लड़ैत फल पारखी
दौड़े।।”8
सिद्ध, नाथ तथा जैन साहित्य प्रायः उपदेशात्मक
व साम्प्रदायिक ही बना रहा उसमें रमणीयता का तत्व नहीं आ सका जिससे यह नीरस हो गया।
आचार्य शुक्ल ने इन साहित्यों को “ साम्प्रदायिक
शिक्षा मात्र”9 माना तथा “ शुद्ध साहित्य की कोटि”10 के अंतर्गत मानने से इंकार कर दिया।
भाषा
के स्तर पर प्रायः अप्रामाणिकता तथा बिखराव दिखता है। इस काल में डिंगल, पिंगल, प्राकृत
तथा अपभ्रंश जैसी भाषाओं का प्रयोग देखने को मिलता है लेकिन किसी एक भाषा पूर्ण विकास
देखने को नहीं मिलता। यह भी देखा जाता हैं कि उस समय जो अपभ्रंश या प्राकृताभास हिंदी
का प्रयोग कवि कर रहे थे यह भी उससे पीछे की भाषा है। यह उस समय के कवियों की भाषा
है सामान्य जन की नहीं । भाषा के सम्बन्ध में
आचार्य शुक्ल का कहना है कि — “बोलचाल की भाषा घिस - घिसाकर बिल्कुल जिस रूप
में आ गई थी सारा वही रूप न लेकर कवि और चारण आदि भाषा का बहुत कुछ वह व्यवहार में
लाते थे , जो उनसे सौ वर्ष पहले से कवि परंपरा रखती चली आती थी।”11
समग्रत: यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है
कि आदिकाल में संवेदनागत और शैलीगत ऐसे कई बिंदु हैं जिन्हें हम उसकी सीमाओं के रूप
में रेखांकित कर सकते है लेकिन आदिकाल का सिक्के के ' पहले पहलू' के रूप में जो योगदान
हिंदी साहित्य को दिया है उसकी भी उपेक्षा
नहीं की जा सकती। आदिकालिन साहित्य के कई सकारात्मक पहलू जैसे – सिद्धों, नाथों
व जैनों द्वारा धार्मिक आडंबरों का विरोध, नाथों और जैनों द्वारा भोगवाद का विरोध,
अमीर खुसरो द्वारा सामाजिक स्थिति पर चोट तथा स्वस्थ मनोरंजन का प्रयास उल्लेखनीय है;
साथ ही भाट तथा चारणो द्वारा तत्कालीन समय तथा समाज के लिए आवश्यक वीरता के मूल्य को
स्थापित किया गया जो प्रशंसनीय है, लेकिन ऐसी उपरोक्त तथ्यों की मात्रा बहुत कम हैं।
अतः
यह कहा जा सकता है कि हिंदी साहित्य में प्रारंभिक रचना तथा कालगत अवस्थिति व तत्कालीन
परिस्थिति के कारण आदिकाल में स्वत: ही सीमाएं उत्पन्न हो जाना स्वाभाविक हैं।
संदर्भ
ग्रन्थ
—
1. शुक्ल,
आचार्य रामचन्द्र, हिंदी साहित्य का इतिहास, नई दिल्ली,प्रभात प्रकाशन, संस्करण
2025, पृष्ठ - 15
2. वही,
पृष्ठ - 27
3. बड़थ्वाल,
डॉ पीतांबर, गोरख बानी, प्रयाग, हिंदी साहित्य सम्मेलन, पृष्ठ - २१७
4. डॉ
नगेंद्र, डॉ हरदयाल,हिंदी साहित्य का इतिहास, नई दिल्ली, मयूर बुक्स प्रकाशन,संस्करण
- जून 2020,पृष्ठ - 53
5. वही,
पृष्ठ - 67
6. शुक्ल,
आचार्य रामचन्द्र, हिंदी साहित्य का इतिहास, नई दिल्ली,प्रभात प्रकाशन, संस्करण
2025, पृष्ठ -32
7. वही,
पृष्ठ - 62
8. दास,
श्यामसुंदर, कबीर ग्रंथावली, प्रयाग, इंडियन प्रेस लिमिटेड, नगरी प्रचारिणी ग्रन्थमाला
– ३३,१९१९, पृष्ठ - ४५
9. शुक्ल,
आचार्य रामचन्द्र, हिंदी साहित्य का इतिहास, नई दिल्ली,प्रभात प्रकाशन, संस्करण
2025, पृष्ठ - 33
10.
वही, पृष्ठ - 33
11.
वही, पृष्ठ - 20