एक महान शिक्षक एवं शिक्षाविद
एक आदर्श
एवं एवं सम्पूर्ण व्यक्तित्व कैसा होना चाहिये ? जब भी यह प्रश्न मन में आता है तो
मानस पटल पर एक ही छबि उभरकर आती है वो है राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की । मानव
जीवन की जितनी भी डायमेंशन हो सकती है वे सभी गांधीजी के जीवन दर्शन में
अंतर्निहित है । आजादी का अनुगामी गांधी, बैरिस्टर गांधी, समाज सेवक गांधी, समाज सुधारक गांधी, स्वदेशी का पुरोधा
गांधी, चरखे का प्रणेता
गांधी, पत्रकार गांधी, लेखक गांधी, अनुवादक गांधी, चिकित्सक गांधी, संगीतज्ञ गांधी, दलित उद्धारक गांधी, उपवासक गांधी, पंचमहावृत के
अनुपालक गांधी, गौ
भक्त गांधी अगणित कार्यक्षेत्र थे इस युगदृष्टा के और अनंत उपमाएं हो सकती है इस
महात्मा के लिए । एक शिक्षक एवं शिक्षाविद के रूप में भी गांधीजी ने न केवल भारत
को अपितु सम्पूर्ण विश्व को नयी दृष्टि दी है ।
मोहनदास जब
मात्र 13 वर्ष के थे तभी
उनका विवाह कस्तूर कपाड़िया से हुआ । विवाह के प्रारंभिक 6 वर्षों में वे
मात्र 3 वर्ष तक ही एक
दूसरे के साथ रहे । कस्तूर गांधी पढ़ी लिखी नहीं थी । मोहन दास पत्नी को शिक्षा
देना चाहते थे मगर उन्हें इसके लिए कम ही अवसर मिले । युवावस्था में विषय इच्छा भी
इसमें बाधक रही और उन्होंने इसकी स्वीकारोक्ति भी की । हाँ ! कस्तूर गांधी के लिए
वे समय-समय पर प्रयास करते रहे । यह प्रयास न केवल भारत में अपितु अफ्रीका में भी
जारी रहे । वे मुश्किल से साक्षर हो पायी थी । ओपचारिक शिक्षा में चाहे सफलता
नगण्य ही मिली मगर व्यवहारिक धरातल पर गांधीजी आजीवन कस्तूर बा के गुरु बने रहे ।
जब वे
ब्रिटेन में शिक्षा ग्रहण कर रहे थे तब नारायण हेमचंद्र इंग्लैंड प्रवास पर थे ।
एक लेखक के रूप में गांधीजी उनसे परिचित थे । जल्दी ही वे एक दूसरे के संपर्क में
आये और घनिष्ठ मित्र बन गये । उन्होंने गांधीजी से प्रश्न किया कि क्या तुम मुझे
अंग्रेजी सिखाओगे । उन्होंने एक कुशल शिक्षक की भांति नारायण हेमचंद्र को अंग्रेजी
सिखलाई ।
सन 1891 में गांधीजी
ब्रिटेन से बैरिस्टर की डिग्री लेकर भारत आये तो उन्हें वकालात में आशातीत सफलता
प्राप्त नहीं हुई । पुत्र हरिलाल को जो लगभग 4 वर्ष का था एवं भाई लक्ष्मीदास के
बच्चों को घर पर ही पढ़ाना प्रारंभ किया । इस प्रयोजन में गांधीजी सफल भी रहे और
उन्हें यह आभास हो गया कि वे अच्छे शिक्षक बन सकते हैं ।
उधर वकालात
में आशानुरूप सफलता नहीं मिली थी । मुश्किल से मणिबाई का केस मिला था मगर उस केस
में एक बैरिस्टर के रूप में वे असफल ही रहे । इस असफलता के बाद उन्होंने शिक्षक
बनने के बारे में ही सोचा था ।अखबार में एक प्रतिष्ठित स्कूल में अंग्रेजी के
शिक्षक पद हेतु विज्ञापन देखकर उन्होंने आवेदन किया । तनख्वाह 75 रुपये थी । गांधीजी
ने आवेदन किया उन्हें साक्षात्कार के लिये भी बुलाया गया मगर बी.ए. न होने के कारण
यह नौकरी उन्हें नहीं मिल पायी ।
सच पूछा जाए
तो सन 1893 में ओबेदुल्ला एन्ड
कंपनी के लिए अफ्रीका में केस लड़ने के प्रस्ताव ने गांधीजी की दशा और दिशा दोनों
ही तय कर दी थी । प्रस्थान के समय गांधीजी का द्वितीय पुत्र मणिलाल शैशवावस्था में
था ।उन्होंने लगातार 21 वर्षों
तक अफ्रीका की सेवा की । इस दौरान वे अल्प अवधि के लिए 2 बार भारत आये । वे
गये तो वहाँ एक वर्ष के लिए ही थे मगर दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों की दशा सुधारने
एवं गिरमिट प्रथा बंद करवाने के लिए अनवरत संघर्ष करते रहे ।
गांधीजी 1896 में अपना परिवार
लेने के लिए भारत आये । जब 1897 में
वे परिवार सहित डरबन पहुंचे तब उन्हें अपने दोनों पुत्रों हरिलाल और मणिलाल जो
क्रमशः 9 व 5 वर्ष के तथा बहन का
लड़का जो 10 वर्ष का था की
शिक्षा की चिंता थी । उन्होंने दोनों को ही घर पर ही पढ़ाना उचित समझा । उन्होंने
उस समय तीनों बच्चों को मातृभाषा गुजराती में शिक्षा दी । सदैव ही उनकी मान्यता
रही कि बच्चों का बचपन माँ-बाप के साये में ही होना चाहिए । समुचित समय नहीं होने
पर भी उन्होंने बच्चों के लिए शिक्षक की भूमिका भी निभायी । बच्चों को नियमित
स्कूली शिक्षा एक कामचलाऊ स्कूल में ही मिल पायी जिसे गांधीजी ने स्वयं सत्याग्रही
अभिभावकों के बच्चों के लिये खोला था ।
1901 में वे भारत आये मगर पुनः 1902 में वे अफ्रीका लौट
गये । यह दक्षिण अफ्रीका की अंतिम यात्रा थी । इस बार वे मगनलाल गांधी एवं अन्य
युवकों के साथ रवाना हुए । लगभग एक वर्ष पश्चात परिवार को भी पुनः अफ्रीका बुला
लिया । जान रस्किन की कृति "अनटू दिस लास्ट" का गांधीजी पर गहरा असर रहा
और उन्होंन फीनिक्स आश्रम की स्थापना की । फीनिक्स में आत्मनिर्भरता का वातावरण
बना एवं उच्च नैतिकता का स्वर्णिम अध्याय प्रारम्भ हुआ । यकीनन गांधीजी के द्वारा
प्राचीन भारतीय आश्रम व्यवस्था को चरितार्थ करने का यह प्रथम प्रयोग था जो अंतिम निवास
(सेवाग्राम, वर्धा)
तक जारी रहा । गांधीजी के दो बच्चों रामदास व देवदास का जन्म अफ्रीका में ही हुआ ।
चारों बच्चे यहीं पले बढ़े । उन्हें गांधीजी प्रतिदिन 1 घंटा साहित्यिक
शिक्षा देते थे ।
किसान
कैलनबैक हरमन ने टाल्सटाय आश्रम हेतु गांधीजी को अपना फार्म दान कर दिया और
उन्होंने इस आश्रम के लिए ही अपना सम्पूर्ण जीवन भी न्यौछावर कर दिया । सच पूछा
जाए तो टॉलस्टॉय आश्रम शिक्षा का एक आदर्श केंद्र था जहाँ समग्र शिक्षा के दर्शन
थे । साहित्यिक प्रशिक्षण, वृक्ष
लगाना, बागवानी करना, खाना बनाना, साफ-सफाई करना यह
सभी कुछ सभी आश्रमवासियों को करना होता था चाहे वह बच्चे हो, युवा हो अथवा
बुजुर्ग । आश्रम में व्यावसायिक प्रशिक्षण भी दिया जाता था यहाँ बढ़ईगिरी, जूते बनाना आदि सभी
कुछ सिखाया जाता था ।
टॉलस्टॉय
आश्रम में स्थापित विद्यालय में हिन्दी, तमिल, गुजराती, उर्दू सहित संस्कृत
का भी प्राथमिक ज्ञान दिया जाता था । इसके अतिरिक्त इतिहास, भूगोल व गणित का भी
ज्ञान दिया जाता था । गांधीजी स्वयं बच्चों को तमिल व अंग्रेजी पढ़ाते थे ।
आश्रम का एक
अनूठा प्रसंग यहां प्रासंगिक होगा । आश्रम में एक उद्दंड, झूठा और लड़ाकू
छात्र भी था । एक समय पर वह बहुत हिंसक हो गया । गांधीजी ने अनेक बार उसे समझाने
की कोशिश की मगर असफलता ही हाथ लगी । गांधीजी अपने छात्रों को कभी सजा नहीं देते
मगर उसकी उद्दंडता पर पास रखे रूलर से उसको हाथ पर मारा । उसे मारते हुए गांधीजी
के हाथ कांप रहे थे । उसने देखा कि हिंसक सजा देते वक़्त गांधीजी स्वयं कितने पीड़ित
थे । छात्र में परिवर्तन आया व उसके पश्चात उसने गांधीजी की कभी भी अवज्ञा नहीं की
मगर गांधीजी जी शारीरिक दंड के सदैव विरोधी थे अतः सदैव ही उनके मन में इस घटना की
ग्लानि रही ।
21 वर्षों तक अफ्रीका की सेवा के बाद जब
गांधीजी भारत आये तो उन्होंने आश्रम के प्रयोगों एवं अनुभवों को यहां भी अपनाया और
सफलता प्राप्त की । सच पूछा जाए तो वे समग्र जीवन मे शिक्षक की भूमिका में रहे ।
फिनिक्स दल को पहले गुरुकुल कांगड़ी में स्वामी श्रद्धानंद का सान्निध्य प्राप्त
हुआ और फिर शांतिनिकेतन में गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर का सान्निध्य मिला ।
सन 1915 में गांधीजी ने
अहमदाबाद के बैरिस्टर रहे जीवनलाल देसाई की मदद से कोचरब में आश्रम की स्थापना की
जिसका नाम सत्याग्रह आश्रम रखा गया । सन 1917 में प्लैग के कारण यह आश्रम कोचरब से
अहमदाबाद में साबरमती के तट स्थापित किया गया जो साबरमती आश्रम के नाम से जाना
जाता है । उच्च आदर्श जीवन के केंद्र रहे इस आश्रम में अनेक रचनात्मक कार्यों के
साथ ही हरिजनोद्धार के लिए गांधीजी ने अनवरत प्रयास किये । करघा एवं चरखा न केवल
स्वावलंबन के प्रतीक बने अपितु भारतीय स्वाभिमान के पर्याय भी बने ।
जब वे
चंपारण में नील विद्रोह का तानाबाना बुन रहे थे तभी उन्हें यह भी महसूस हुआ कि बिहार में
उचित शिक्षा का प्रबंध आवश्यक है । उन्होंने सहयोगियों के साथ सलाह करने के बाद छह
गांवों में प्राथमिक शाला खोलने का निर्णय लिया । श्रीमती अवंतिका बाई, आनंदी बाई, दुर्गा देसाई, मणिबेन पारिख एवं
कस्तूर बाई ने इन विद्यालयों को आदर्श विद्यालय बनाने के लिए अथक प्रयास किया ।
उन्होंने इन विद्यालयों के लिये अनुदान भी जुटाया और समुदाय से सहयोग भी प्राप्त
किया ।
गांधीजी 1936 से जीवन के लगभग
अंतिम दिनों तक सेवाग्राम आश्रम में रहे । जमनालाल बजाज ने इस आश्रम में अपनी भूमि
दान की । वास्तव में इस आश्रम को लघुभारत कहा जा सकता है । शिक्षा, चिकित्सा, आध्यात्म, प्रार्थना, राष्ट्रीय आंदोलनों
का केन्द्र, गौशाला, ग्रामोद्योग क्या
कुछ नहीं था इस आश्रम में । 1933 में
साबरमती आश्रम बंद होने के बाद लक्ष्मीबाई खरे वहाँ की लड़कियों को लेकर वर्धा आयी
और विनोबाजी के मार्गदर्शन में एक कन्या आश्रम की स्थापना हुई । 22 ऑक्टोबर 1937 को एक बड़ी शिक्षा
परिषद हुई जिसमे देश के स्वतंत्र विचारक एवं शिक्षा विशेषज्ञ भी शामिल हुए । काका
कालेलकर एवं आचार्य कृपलानी का अहिंसा से साक्षात्कार इसी आश्रम में हुआ । गांधीजी
ने इन्हें राष्ट्र भाषा हिन्दी के प्रचार का कार्य सौंपा ।
गांधीजी ने 4 जनवरी 1948 को पुनः अपनी
अभिलाषा को कुछ इस तरह व्यक्त किया - "मेरी चले और कोई मुझे नौकरी पर रखे तो
मैं शिक्षक होना ही पसंद करूँगा"। गांधीजी की शिक्षक की नौकरी करने की
अभिलाषा अपूर्ण अवश्य रही मगर वे आजीवन शिक्षक बनकर रहे । सच पूछा जाए तो गांधीजी
एक महान शिक्षक व शिक्षाविद थे जिन्होंने शिक्षा के हर पक्ष को चरितार्थ करके
दिखलाया ।
यशवंत चौहान
मध्यप्रदेश
साहित्य अकादमी अलंकरण प्राप्त
राष्ट्रीय
ओज कवि एवं साहित्यकार
5/242, राजेन्द्र कॉलोनी
राजगढ़ (धार)
मध्यप्रदेश
पिन - 454116
संपर्क
सूत्र : 9752659556
E mail : kaviyash70@gmail.com