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तुम टूट के पत्ते से बिखर गये
मै टूटी सुखी डाली सी ।
पानी बरसा धूप लगी
मै हो गई मिट्टी काली सी ।।
तुम हवा मे उड़ते जाते थे
तेज हवा के झोको से ।
मै देख रही थी पड़ी हुई
मै तुमको न रोक सकी थी ।।
जब हरे भरे थे हम दोनो
फल फूलो से लदे हुए थे ।
फूल झड़े फल गिरे
हम हो गये खाली डाली से ।।
अस्तित्व बचाने के खातिर
हम लड़ते रहे हर मौसम से
न जाने किस मौसम की आह लगी
मै गिरी टूट के सुखी डाली सी ।।
न जाने कितने पद चिन्हो से
रौदी गई मै माटी मे ।
पानी बरसा धूप लगी
मै हो गई काली मिट्टी सी ।।
उत्तम कुमार तिवारी ‘उत्तम’
लखनऊ, उत्तर प्रदेश