चलते थे जो कभी संग हमारे

अरुणिता
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चलते थे जो कभी संग हमारे,

बन गए वो आकाश के तारे,

अश्रुपूरित नयन हमे दे कर,

ईश्वर के ही हो जाते प्यारे।।



चलती रहती फिर भी जिंदगी,

सुख दुःख संग संग ही बंदगी,

कल वहां अपना भी होगा जाना,

फिर भी रुकने की है परिंदगी।।



चलते फिरते राह में यूं ही,

खो जाते एक चाल में यूं ही,

भूल कर सब रिश्ते नाते भी,

कागज से दोस्ती निभाते यूं ही।।



कब कोई ठहरा सदा धरा पर,

रहा धरा का सब ही धरा पर,

फिर मन को भाए कौन डागरिया,

महल ही सजाए वसुंधरा पर।।



कुछ भूले से कुछ भटके से,

देह प्रेम में ही जो उलझे से,

सजा संवार कर देह चल दिए,

मन से रह गए वो उलझे से।।



प्यारी प्यारी यात्रा जीवन की,

हर पल तो एक नवजीवन सी,

कुछ सीखना और कुछ सिखाना,

निश्चल प्रेम के नवयौवन सी।।



क्या हो गए हम सब भी भुलक्कड़,

खेल रहे जैसे अक्कड़ बक्कड़,

मर्म भूला और लक्ष्य भी भूला,

इच्छाओं से बने घनचक्कर।।



तन पर वस्त्र रहा सब उजला उजला,

करुणा से कभी मन न ये पिघला,

रोते बिलखते हमने भी प्राणी देखे,

चला मानवता भूलने का सिलसिला।।



कोई आए कोई तो जगाए,

सोचे वैदेही पर समझ न आए,

उड़ता पतंगा आखिर कब तक,

बाती में ही खुद को जलाए।।



अरुणिमा बहादुर खरे ‘वैदेही’


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