ग़ज़ल

अरुणिता
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हमने माना कि है मुख़्तसर ज़िंदगी,
नफ़रतों में न हो पर बसर ज़िन्दगी।


क़द्र इसकी करो ये है आब-ए-हयात,
बन न जाए कहीं ये ज़हर ज़िंदगी।


ग़र हैं कांटे तो गुल भी खिले हैं यहाँ,
है बहुत ख़ूबसूरत डगर ज़िंदगी।


कब तलक और यूँ ही परेशाँ रहूँ,
बोल कुछ तो, कभी बात कर ज़िंदगी।


वो जो मरने की मेरे दुआ कर रहे,
उनको लग जाए मेरी उमर ज़िंदगी।


हसरतें हैं बहुत सी अधूरी मेरी,
और कुछ दिन अभी तू ठहर ज़िंदगी।


साथ तेरे मेरा गहरा याराना है,
मौत से मुझको लगता है डर ज़िंदगी।


पुनीत कुमार माथुर ‘परवाज़’
इंदिरापुरम , गाजियाबाद
उत्तर प्रदेश

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