ग़ज़ल

अरुणिता
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खिड़की पर सुन्दर बाला है

पर दरवाज़े पर ताला है

 

ख़ूब रहा दिल का चक्कर ये

जिसने माथा मथ डाला है

 

रहना ही है उस साँचे में

अपने को जिसमें ढाला है

 

अति तू था मतवाले जुग में

अब कितना मतवाला है

 

तीर धँसे हैं सीने अंदर

दोनों पाँवों में छाला है

 

रात बड़ी रंगीन नशीली

ख़त्म ख़ुमारी दिन काला है

 

प्यार रहा पैसे से बढ़कर

इसमें ज़्यादा घोटाला है

 

खाने की ख़ातिर ज़ख़्म यहाँ

पीने की ख़ातिर हाला है

 

सपने पूरे कर लो पहले

जपने को इक दिन माला है

केशव शरण

वाराणसी, उत्तर प्रदेश

 

 

 

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