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यादों का दफ्तर

 


खोलो यादों का दफ्तर

करते हैं कुछ चटर पटर

दोपहर की कितनी यादें

दोस्तों संग करते थे बातें

 

मम्मी जब सो जाती थी

तब सहेली आ जाती थी

कंकड़ से हम खेला करते

जीतकर कंकड़ इकट्ठा करते

 

जिसके ज्यादा कंकड़ होते

दूजे को फिर खूब चिढ़ाते

चिढ़कर दूर भाग जाया करते

पर मंद मंद मुस्काया करते

 

दादी से अपनी खूब पटती

अनुभवों की गठरी खुलती

अगर कोई समस्या भी होती

बस पल में ही हल हो जाती

 

खुले आंगन में सोया करते

चाची ताई संग बतलाया करते

आसमान के तारें गिनते गिनते

न जाने कब सो जाया करते

 

वह आजादी कहां रही आज

अपनों से कब होती है बात

मोबाइल पर व्यस्त जिंदगी

भूली जीवन का अनमोल साज

 

अलका शर्मा

शामली, उत्तर प्रदेश

 

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