जीवन की चाह

अरुणिता
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ज़िन्दगी बता रही है मौत का आईना

बवंडर सा सैलाब उमड़ रहा है

तेरे कदमों की आहट पर बहक रहा है

लेखिनी मदहोश हो कर कह रही है

रु - ब - रु सी बेचेन बह रही है

सदियों की बनी कुप्रथाएँ

प्रथा बन कर रह रही हैं

रूहानी सी रुसवाई कह रही है

तेरी मौत भी तो कदमों
तले रह रही है

जमाने की आहट पर आकर

बदनामी की धूप सह रही है

 मनहूसियत का मंजर बहा कर के लायी

दिल की जमीं पर मासूमियत की अग्नि बह रही है

दामन में खुशियों के रंग भरकर

काजल की कालिख रंग रही है

आईने के सौ टुकड़ों की चुभन भी तो

पिघले शीशे सी कह रही है

किंकरी - तू सजदा है,

बालू के बुलबुलों का

और बेबस सी राह तक रही है

बड़ा गुमान था तुझको

तेरी औकात भी तु से कह रही है

जीवन का स्वाहा कर के

मकोल, बेबस सी हँस रही है

पहाड़ों सी बोझिल पड़ी है तू

नदियों के रेत सी रह रही है

सागर पर तिरंगा लहराने की चाह रख कर

नाले की सड़न सह रही है

कोयल सी बातें हैं तेरी

गीदड़ सी हुँकार भर रही है

फिर भी ये कबीरन की बेटी

जीवन की चाह तक रही है...

     -मिंकी मोहिनी गुप्ता

पिनाहट , उत्तर प्रदेश


 

 

 


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