यात्रा

अरुणिता
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उम्र के आँखिरी पड़ाव में

चीटियों के पँख लग गये

वे बिलों से बाहर निकल गई

उड़ने लगी एकाकी ही

भरने लगी असीमित उड़ान

अनन्त को पाने के लिए

पँख नये थे पर

तुजुर्बा नहीं था उड़ने का

शीघ्र ही जमींदोज हो गई

घात लगाये बैठे  मेंढकों नें

पहली बार शीत निद्रा से 

जागकर भरपेट भोजन किया

कुछ जोड़े हवा में प्रणय

करने में सफल हो गये

पर वे नर चीटियाँ भी

काल कवलित हो गयी

जो मादाएं शेष थी

उन पर जिम्मेदारी थी

कल्पांत तक अपनी

प्रजाति को बचाये रखने की

रानियों ने हार न मानी

उन्होंने नई बाँबियों में

अण्डे दिये और सृष्टि

का क्रम पुनः चल पड़ा ।

                देवेन्द्र पाल सिह बर्गली

                 नैनीताल, उत्तराखण्ड

 

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