जाने कैसी हवा चली

अरुणिता
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जाने कैसी हवा चली, कैसी चली ये रीत रे।

ना तो मनके तार खनकते, ना होठों पर गीत रे।

भाग-दौड़ के इस जीवन में,

हर पल हम बेचैन रहे।

सिमट रहा आकाश आस का

प्रेम पियासे नैन रहे।

टूट रहा साँसों का सरगम, बिखर रहा संगीत रे।

जाने कैसी हवा चली, कैसी चली ये रीत रे।

इर्ष्या-द्वेष असत्य की कजरी,

परम्पराएँ फिसल रही।

जहर भरी है गगरी-गगरी,

डगरी-डगरी लहर रही।

मुट्ठी भर छाँव मिले ग्रीष्म में, जीवन जाये बीत रे।

जाने कैसी हवा चली, कैसी चली ये रीत रे।

         हाट-बाट में बेच रहा है,

         मनुज अस्मिता सौ-सौ बार।

         सब कुछ है बेमानी लगता,

         दूल्हा डोली और कहार।

जिसके जितने हाथ हैं लम्बे, उसकी उतनी जीत रे।

जाने कैसी हवा चली, कैसी चली ये रीत रे।

         धर्म, ईमान, रिश्ते-नाते

         सबकी बदल रही परिभाषा।

         दीप आस्था के बुझ रहे,

         सर्वत्र कुंठा हताश निराशा।

है आदमी आदमी से, आज यहाँ भयभीत रे।

 जाने कैसी हवा चली, कैसी चली ये रीत।

     

अशोक सिंह

  जनमत शोध संस्थान

          पुराना दुमका केवटपाड़ा, दुमका - 814101 ( झारखण्ड )

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