श्याम की जिंदगी में संघर्ष ही संघर्ष था। बेटों को वह अपने संघर्ष के अनुभव बताना चाहता था। अबके समय के बेटे पूरे कलियुगी हैं, वह अपने-आपको बाप से ज्यादा बुद्धिमान समझते हैं। फिर पिता का अनुभव कौन सुनेगा, पिता को घर से निकालने की तरकीबें सोची जाती हैं।
श्याम की जिंदगी में ईमानदारी भरी हुई थी। श्याम की पत्नी भारती ने श्याम को कभी ईमानदारी से अलग होने की सलाह तक नहीं दिया था। श्याम, भारती से चार पुत्रों ने जन्म लिया था। ऐसा पुत्री के लिए इंतजार करने के कारण हुआ था, तब परिवार नियोजन के कारगर उपाय भी कम थे।
श्याम ने चारों पुत्रों के लिए बहूरानियां भी ले आया था। श्याम अपने हिसाब से गुणवान बहुएं ही लाया था। चारों पुत्रों को एक - एक बहुएं, सभी अपने - अपने परिवार में मस्त थे। माता - पिता के लिए समय नहीं था। यही तो जिंदगी की रीत है, एक गरीब पिता अपने चार पुत्रों को खिलाता है, चार पुत्र एक पिता को नहीं खिला पाते हैं।
यद्यपि श्याम अपनी चारों बहुओं को बेटियों की तरह ही मानता था। एक यह भी श्याम का अनुभव बताता है कि, बहू को बेटी नहीं बहू ही मानना सर्वोत्तम होता है। बेटी से बहू अच्छी है, बेटी, बेटी है, बहू, बहू है! बेटी से बहू पवित्र होती है! बेटी पाप की बेटी है, बहू दान की बेटी है!
श्याम की बड़ी बहू गुन्नी, बहुत खूबसूरत तो नहीं थी लेकिन बदसूरत भी नहीं थी। सांवली सलोनी गुन्नी बड़ी बड़ी आंखें, सुडौल चेहरा, यह तो गुन्नी के तन की सुंदरता थी! गुन्नी के मन की सुंदरता बहुत सुंदर थी, बस उसके स्वाभिमान को कोई नहीं छेड़छाड़ करे, वरना वह बहुत बुरी हो जाती थी।
गुन्नी का स्वस्थ शरीर था, गुन्नी काम करने से कभी नहीं थकती थी। एक छोटी सी गृहस्थी, आधुनिक आवश्यकताओं में आज का युवा घर में, खेती, मजदूरी नहीं मिलने से दूर - सुदूर दक्षिण कमाने चला ही जाता है। एक घर में अकेली बहू सास - ससुर से अलग रहना चाहती है, देवरानी जेठानी तो जो बहुत समझदार हुईं वह एक में रह पाती हैं वरना कहां रह पाती हैं।
स्वाभाविक था, सभी के चूल्हे अलग - अलग हो गए थे। अब श्याम को कौन खिलाएंगे, कोई ठिकाना नहीं था। यही काफी था कि खेत नहीं बंटे थे।
समय की मार बड़ी बुरी होती है, समय की मार ने श्याम को ऐसा थपेड़ा मारा था कि, समय से पहले ही श्याम से भारती को छीनकर ले गया था। अब तो श्याम को कौन खाना खिलाएगा? एक प्रश्न बनकर रह गया था।
बहू गुन्नी ने श्याम को संभाला, समय से सबकुछ उपलब्ध कराया था। ऐसी सेवा की उम्मीद बहू से कम ही लोग करते हैं।
लड़के चार - चार, छः - छः महीने घर नहीं आते थे। इस बार तो शादियों के महीने थे, श्याम की सभी बहुएं अपने - अपने मायके चली गई थीं।
श्याम की उम्र हो चुकी थी, फिर श्याम ने कभी खाना बनाया नहीं था; आज श्याम को चारों तरफ अंधेरा ही अंधेरा नजर आ रहा था। जब भूख लगती है तब कुछ भी अच्छा नहीं लगता है, मोबाइल भी भरे पेट पर अच्छा लगता है।
श्याम को अपनी बहू गुन्नी की याद आ रही थी। आज श्याम को बहुत याद आती है बहू रानी! श्याम गुन्नी को मोबाइल पर मैसेज लिखता है।
'बहू गुन्नी,
तू बहुत याद आती है बहू रानी! जब तू रहती थी दिन भर तुझे बुलाता रहता था। तू ने कभी यह नहीं जताया कि तुझे मैं बहुत परेशान करता हूं। तू मेरे सभी काम खुशी मन से करती थी। मैंने तो तुझे कुछ दिया भी नहीं सिर्फ, डांट - फटकार के! फिर भी तू ने उफ तक नहीं किया था।
'गुन्नी क्या तू नाराज हो गई? जिस दिन से तू चली गई है, पेट नहीं भरा, मिट्टी खाकर भी! जिस आलमारी में जूंठे बर्तन रखे थे अभी भी वहीं रखे हैं। एक दिन का खाना बनाकर रख गई थी तू, दो दिन खाया था। अब मुझसे बनता नहीं है, प्रयास भी किया था तो खाने लायक नहीं बना पाया था। सभी बर्तन धोने के लिए बिखरे पड़े हैं।
'लगभग महीना पूरा होने वाला है, तबसे अब - तक, दो - चार दिन निमंत्रण खाया है, बांकी के दौरान वही नमकीन, बिस्कुट से काम चलाया हूं। कभी - कभी बेटी में तुझमें अंतर ढूंढ़ा करता हूं क्योंकि, सैतारा बनिया क्या करता, इस कुठिला का धान उस कुठिला में रखता!'
बेटी से बहुत अच्छी है तू, तेरा अधिकार है यहां, तुझपर मेरा अपना अधिकार है, तभी तो तुझे बिना गलती भी डांटता था। तू चुप रहती थी, जवाब नहीं देती थी। लोग बेटी की तरफदारी में बहू को डांटकर बहुत ही बड़ी गलती करते हैं। बहू गुन्नी, भला बताओ तुम्हारे शिवाय कौन सहता मुझे, मेरी बातों को!
'बहुत याद आती है बहू रानी, तू मुझे! तूने जो भी मेरे कपड़े धोकर रख दिया था न, उनमें एक जोड़ी बचा कर रखा हूं, क्योंकि कहीं आने-जाने के लिए होंगे, बांकी सभी कपड़े पहनकर मैंने गंदे कर दिए हैं।
'तूने ही गुन्नी, मेरी आदत बिगाड़ रखी है, गंदे कपड़े पहनने ही नहीं देती थी! जहां एक दिन पहनकर कपड़े उतार कर रखत था, तू ले जाकर तुरंत साफ कर दिया करती थी।
'हां याद आया, आज मेरा दोस्त विष्णु आया था। पूछने लगा था कि, "श्याम, खाना खाया? आज गुन्नी को नहीं बुलाया इतनी देर हो गई!"
'भला बताओ मैं उससे क्या कहता? झूठ पर झूठ बोल दिया था। फिर भी वह मेरे झूठ पकड़ लिया था। गुन्नी, तू नहीं है, यहां लोग जान जाते हैं; मेरे चेहरे की मध्यता, मेरे चेहरे की बेचारगी पढ़ लेते हैं सब!
'गुन्नी, तू नहीं है घर में, यह मेरा कमरा चीख - चीखकर बता दिया करता है कि, तू नहीं है! मैं लाख झाड़ू लगाऊं, छिपाकर निशान रखूं फिर भी यह कहता है कि, मुझे कब से नहलाया नहीं गया, धोया नहीं गया है। तेरे झाड़ू में ऐसी कौन सी खासियत है, कौन सा जादू है जो चीख - चीखकर लोगों को बता देता है कि, तू नहीं है!
'गुन्नी, सच कहता हूं, दरवाजे पर आते ही लोग स्त्री - पुरुष सभी कहने लगते हैं, "लगता है, श्याम की बहू गुन्नी नहीं आई है, अभी!"
'ऐसी कौन सी बात थी गुन्नी तुझमें, जो सभी जान गए थे, मैं नहीं जान पाया था। गुन्नी, मैं लाख झाड़ू मारूं, कपड़े साफ करूं तुम्हारे जैसे साफ होते ही नहीं! गुन्नी, मेरी मां, तुम्हारी सास के बाद जो तुम्हारे हाथ से बने खाने में स्वाद था एक ही था; ऐसा क्यों?
'गुन्नी, सच कहता हूं, तेरे हाथों का बनाया खाना खाकर ही जीवित हूं, वरना मैं कब का मर गया होता। ऐसा लगता है, तू ही असली रौनक है इस घर की! जल्दी आ जाओ वरना मैं मर जाऊंगा। बहू लक्ष्मी है, सब कहते हैं; बहू घर की रौनक है, बहू घर की, घर में, जिंदगी है क्यों नहीं कहते हैं?
'बहुत याद आती है बहू रानी, यह मैं अपने मित्रों से कहता हूं, सभी मित्रों का भी यही मानना है कि, बहू से अच्छी कोई नहीं है क्योंकि, बहू जीवन भर हंसाती है, बहू जिस दिन से आती है खुशियां ही खुशियां लेकर आती है। बेटी जिस दिन से आती है रुलाती है, बहू जिस दिन से आती है हंसाती है!
'बस, अब लिखा नहीं जा रहा है, बहुत याद आती है बहू रानी, उस दिन की तेरे हाथों से दी दवा जो जीवनदायिनी हो गई थी, वरना उस दिन की लू लगने से यह जिंदगी ही खत्म हो जाएगी, ऐसा मुझे लग रहा था। गर्मी में ठंड चीजों का सेवन करवाना, ठंड में गर्म कपड़ों से लेकर सभी एहतियात बरतने को कहना, फिर भी मेरी डांट खाते रहना, किस चीज की बनी हो तुम!
'मुझे मेरी उम्र का पता ही नहीं चलने देती थी तू! तू तो कहती थी, जल्दी लौट आओगी, फिर क्या हुआ? मेरी डांट का बुरा मान गई क्या तू? अब नहीं डांटूंगा, नहीं आओगी तो खुद इतनी दूर चला जाऊंगा कि, लाख बुलाओगी, चिल्लाओगी, नहीं आऊंगा, नहीं सुनूंगा!'
तुम्हारा पिता, तुम्हारा ससुर,
श्याम!
श्याम का मैसेज वाट्सएप पर पढ़कर गुन्नी ने उत्तर दिया था, 'मैं अभी आई पापा!'
दूसरे ही दिन बड़ा सा झोला कंधे पर, एक छोटा सा झोला हाथ में लटकाए हुए गुन्नी दौड़ी चली आई थी अपने ससुर के लिए, लेकिन अब बहुत देर हो चुकी थी।
श्याम सदा - सदा के लिए सो गया था चिरनिंद्रा में! गुन्नी सबसे पहले श्याम के पास श्याम के कमरे में उसकी मनपसंद खाने को लेकर गई थी। श्याम अपने विस्तर में अभी भी ऐसे ही पड़ा था जैसे, उसे अब भी गुन्नी का ही इंतजार हो!
गुन्नी की चीत्कारों से, दहाड़ों से पूरा कमरा गूंज गया, गुन्नी की चीत्कारों को सुनकर पहले पड़ोसी फिर मुहल्ला, फिर गांव इकट्ठा हो गया था।
लोगों, बुजुर्गों, श्याम के मित्र विष्णु के द्वारा ऐतिहातन सभी प्रक्रियाएं पूरी की गई थीं। तब - तक सभी बेटे बहुएं इकट्ठे हो गए थे, फोन करके विष्णु ने बुला लिया था। सभी बेटे अड़चन गिना रहे थे फिर भी मुखाग्नि मजबूरी, फर्ज अदायगी में देने के लिए तैयार थे।
तभी गुन्नी ने विष्णु से कहा, "मेरे ससुर, मेरे पापा तो आपसे कहते थे मेरे बारे में! तो क्या मैं अपने ससुर को मुखाग्नि नहीं दे सकती हूं?"
बिष्णु ने कहा, "क्यों नहीं, वह तो कह रहा था कि, गुन्नी को कुछ दिया नहीं फिर भी मुझे खाना देती है, गुन्नी से ही मुझे मुखाग्नि दिलवा देना!"
सभी के देखते - देखते गुन्नी ने श्याम को, अपने ससुर को, अपने पापा को मुखाग्नि देकर अपने को धन्य समझते हुए सभी लोकरीति, वेद रीति, कुल रीति रिवाज पूरे करने के लिए दृढ़ संकल्पित दिखाई दे रही थी।
सभी कार्य श्मशान घाट के पूरे करने के बाद सभी लोग श्याम को तिलांजलि देकर अपने - अपने घर की ओर चल पड़े थे। गुन्नी की आंखों से आंसू अभी भी लगातार बह रहे थे।
घर आकर गुन्नी सभी रीति-रिवाजों को पूरा करने के बाद अपने लिए निर्धारित आसान पर निर्जीव सी बैठ गई थी। सभी परिवार वाले खाने की तैयारियां शुरू कर दिए थे। ऐसा लगता था जैसे अभी भी श्याम कह रहा हो, 'बहुत याद आती है बहू रानी, गुन्नी तुम्हारी!"
डॉ. सतीश "बब्बा"
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