अतीत की यादों को संजोती लोककथाएँ

अरुणिता
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सारांश- बच्चों को समझते हुए विभि‍न्न कहानियों एवं नाटकों द्वारा अपेक्षि‍त भाषा विकास किया जाता है। परिवारों में शामिल बड़े बुज़ुर्ग, जैसे— माता-पिता, दादा-दादी एवं नाना-नानी आदि के द्वारा बच्चे कहानियाँ सुनते हैं। वे उनसे संवाद स्थापित करते हैं कर्इ तरह की सुनी हुई आवाज़ निकालकर वे अपने बड़े बुज़ुर्गों को संतुष्ट करते हैं। कर्इ बार वे शब्दों का चयन कर लेते हैं, परंतु उन्हें वे बोल नहीं पाते इन सब स्थि‍तियों में बड़े बुज़ुर्ग उनकी मदद करते हैं उक्त आलेख लोककथाओं पर आधारित है जिसमें बच्चों के भाषा विकास में इसकी महती भूमिका के साथ ही कक्षा-कक्ष में शिक्षकों द्वारा पर्याप्त दिए गए पर्याप्त मौके का भी ज़िक्र है। यह आलेख पाठकों का लोककथाओं के साथ नवीन प्रयोगों की ओर भी ध्यान केंद्रित करता है।

बीज शब्द- अतीत, यादों, संजोती, लोककथाएँ।

भारतीय साहित्य के संबंध में विभिन्न साहित्यकारों के विभिन्न मत हैं। उनके अनुसार भारतीय साहित्य जितना लिखित है, उतना मौखिक भी है। इसका क्षेत्र

अत्यंत विशाल है और इसमें अनेक विषय समाहित हैं। अधिकांशतः मौखिक साहित्य ने ही क्रमानुसार प्रगति कर लिखित साहित्य का रूप धारण किया है। जब लेखन और कथन की बात होती है तो पठन को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता है। पठन की प्रक्रिया बचपन से ही आरंभ हो जाती है और उत्तरोत्तर इसका विकास होता जाता है। जब हम बड़े हो जाते हैं तो विभिन्न विषयों से संबंधित विभिन्न किताबें पढ़ते हैं। जैसे-जैसे हम पढ़ते जाते हैं वैसे-वैसे हमारी जिज्ञासा में वृद्धि होती जाती है और अनजाने विषयों को जानने की इच्छा हमारे मस्तिष्क में जागृत होती है। किताबों से हम अपने मस्तिष्क में हिलोरें मार रही

बातों को जानने का प्रयास करते हैं। पूरी किताब पढ़ने के पश्चात् हम अपनी राय बताते हैं। हम उस किताब में उल्लिखित कहानी के विभिन्न संदर्भों को हटा देते हैं या फिर उसमें कुछ जोड़ भी देते हैं। इस प्रकार हम कहानी में अनेक बदलाव करते हैं। कहानी में आए इन बदलावों से हमारे समकक्षी पाठक भी इत्तेफ़ाक रखते हैं। वे भी अपनी राय बताते हैं। कहने का अर्थ यह है कि जब हम एक कहानी को विभिन्न पाठकों को देते हैं तो हम उस कहानी पर चर्चा करने के लिए एक संदर्भ बनाते हैं। उन्हें अपनी राय देने का अवसर देते हैं विद्यार्थी अथवा पाठक अपने सुझावों से कहानी को बेहतर बनाने के लिए कहानी में निहित विषयों का मंथन करते हैं। भाषा विकास के लिए मंथन की इस प्रक्रिया का होना बहुत ज़रूरी है। इस प्रक्रिया में लचीलापन तभी आता है जब पाठक रुचि से इस में भाग लेते हैं। रुचि होने पर ही वे बार-बार विषय को पढ़ते हैं, उसका मंथन करते हैं और अपनी राय या सुझाव प्रस्तुत करते हैं। यह प्रक्रिया विभिन्न स्तरों पर भिन्न-भिन्न तरीके से संचालित होती है। आरंभिक स्तर पर पाठकों की रुचि पंचतंत्र की कहानियों में अधिक होती है, क्योंकि इसमें छोटी- छोटी कहानियाँ हैं जो पशु पक्षियों के माध्यम से पिरोई गई हैं ये कहानियाँ पाठकों की रुचि, आयु और योग्यता के अनुकूल हैं और इसलिए ये पाठकों की जिज्ञासा बढ़ाने में सहायक सिद्ध हुई हैं। इन कहानियों को पढ़ते समय पाठक आगे क्या होगा? यह जानने के लिए हमेशा उत्सुक रहते हैं। जैसे-जैसे वे कहानी पढ़ते जाते हैं उनकी जिज्ञासा में वृद्धि होती जाती है। अंत में वह कहानी के संदेश को भी ग्रहण कर लेते हैं। इससे पता चलता है कि इन कहानियों के द्वारा बच्चे एक ओर भाषा ज्ञान को समृद्ध करते हैं तो दूसरी ओर वे इन कहानियों में छिपे संदेश पर चिंतन-मनन करना भी आरंभ कर देते हैं। वे कहानी में वर्णित परिस्थितियों और उसके पात्रों के स्थान पर स्वयं को रखकर कल्पना करने लगते हैं कि यदि उनके साथ भी ऐसा होता तो वे क्या करते? ऐसा करते हुए वे कहानी में छिपे भाव और मूल्यों को समझने का प्रयास करते हैं। यदि हम किसी परिस्थिति का निर्माण किए बिना बच्चों को किसी भाव या मूल्य के बारे में बताते हैं तो वे उसे शीघ्रता से अपना नहीं सकते। किंतु यही बात यदि हम पाठक या बच्चों को किसी परिस्थिति का निर्माण कर बताने का प्रयत्न करते हैं तो वे उस भाव या मूल्य को शीघ्रता से ग्रहण कर लेते हैं अर्थात परिस्थिति का सामना करने पर उन्हें स्वत: ही भाव-बोध हो जाता है। इस प्रकार परिस्थितियों के निर्माण के आधार पर करवाया गया भाव बोध-स्थायी होता है। उसमें निरंतरता बनी रहती है और वह विलुप्त नहीं होता है।

यदि हम अपने अतीत पर नज़र डालें तो हमें पता चलता है कि हमारे परिवार के बड़े-बुज़ुर्ग हमें नैतिक मूल्यों की शिक्षा देते थे। हम उनकी बात सुनते थे। हम केवल सुनते थे इसलिए ये बातें स्थायी नहीं बन पाती थी और हम इन्हें कुछ समय के पश्चात् भूल जाते थे। इसके विपरीत जब हमारे समक्ष कुछ परिस्थितियाँ ऐसी आ जाती थीं जिनका सामना हमें स्वयं करना होता था तब हम परिस्थितियों का डटकर सामना करने के लिए जो प्रयास करते थे वे प्रयास ही हमारे सीखने के कारण बनते थे और हम जो कुछ सीखते थे वह सीख ही ज्ञान के रूप में स्थायी बन जाती थी। कहने का तात्पर्य यह है कि सीखने को स्थायित्व प्रदान करने में परिस्थितियों और अनुभव की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। इस सीखी हुई बात की निरंतरता के लिए आवश्यक है कि हम अपने द्वारा निर्मित नियमों पर चलें गलतियों का दोहराव न करें।

इस प्रकार पढ़ी हुई, कही हुई और सुनी हुई बात बहुत महत्वपूर्ण होती है। कही हुई बात या मौखिक साहित्य के संदर्भ में और अधिक बात की जाए तो लोककथाओं को छोड़ा नहीं जा सकता है। लोक मौखिक-कथित साहित्य का एक महत्वपूर्ण अंश हैं। ये हमारी परंपरागत वसीयत के रूप में हमें प्राप्त हैं। विभिन्न संदर्भों पर आधारित विभिन्न लोककथाएँ हमारे जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। इन कथाओं में नीति, सामाजिकता, राजनीति आदि सभी हैं बचपन में हम बहुत सी लोककथाएँ हमारे घर में दादा-दादी,नाना-नानी, माँ- पिताजी से सुनते थे। वे भी बड़े चाव से हमें लोककथाएँ सुनाते थे। सुनाते समय क्रिया एकतरफ़ा नहीं होती थी, बल्कि वे इन पर हमसे चर्चा करते थे। बीच-बीच में हमें बातचीत करने का मौका भी देते थे। प्रश्न पूछते थे और प्रश्न करने पर जवाब भी देते थे। राजा से संबंधित लोककथा हो तो राजा के बलशाली या कमज़ोर होने के कारण बताते थे। साथ ही किस तरह कमज़ोर राजा को बलशाली बनाया जा सकता है, इसका सुझाव भी देते थे। बलशाली राजा की प्रसिद्धि के कारण बताते थे। यदि राक्षस की कहानी होती तो उसके व्यक्तित्व की विशेषताओं से अवगत कराते थे। परियों की सुन्दरता की कल्पना करने के लिए कहते थे। हम भी लोककथाओं के हर पहलू पर चिंतन-मनन करते थे तथा सुनते-सुनते कल्पनाओं में विचरण करते थे। स्वयं को राजा या परी के स्थान पर रखकर सर्जनात्मक तरीके से सोचते थे। कभी कहानी में विस्तार करते थे तो कभी इसमें छिपे संदेश को व्यक्त करते थे। कभी- कभी इसी विषय पर अन्य कथा का सृजन भी करते थे। ये सब बातें ही तो भाषा समृद्धि का आधार है।

कल्पना करने, चिंतन-मनन करने तथा अपने शब्दों में अभिव्यक्त करने से भाषा का विकास होता है। भाषा समृद्ध और प्रवाहमय बनती है। लोककथाओं की प्रसिद्धि का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि वर्तमान में भारत के लगभग सभी राज्यों ने अपनी पाठ्यपुस्तकों में लोककथाओं को शामिल किया है बच्चे इन लोककथाओं को पढ़ते हैं, कल्पना करते हैं, स्वयं को कहानी के पात्र के रूप में देखते हैं, चिंतन-मनन करते हैं और इसमें निहित संदेश को आत्मसात करते हैं। इस प्रकार वे अपनी भाषा को समृद्ध बनाते हैं। अब बात यह है कि शिक्षकों को क्या करना चाहिए? शिक्षकों को चाहिए कि वे बच्चों को अपनी बात रखने का अवसर प्रदान करें। बच्चे अपनी बात व्यक्तिगत और सामूहिक दोनों रूपों में रख सकते हैं। व्यक्तिगत रूप से तो शिक्षक को बच्चों से बात करनी ही चाहिए, साथ ही उन्हें समूह में भी कार्य करने का अवसर देना चाहिए। वे बच्चों को दो-दो, या तीन-तीन के समूहों में बाँटकर कार्य करवा सकते हैं। प्रत्येक बच्चे की सोच अलग होती है। समूह का हर बच्चा अपनी सोच के अनुसार कहानी पर कार्य करता है। बच्चे विभिन्न तरीकों से सोचकर नई-नई कहानियों का सृजन करते हैं। बच्चों के द्वारा बनाई गई कहानियाँ बड़ी ही मज़ेदार और रोचक होती हैं। शिक्षक कहानियों के प्रदर्शन के लिए प्रदर्शनी का आयोजन कर सकते हैं। इस प्रदर्शनी में बच्चों के परिसर के लोगों को और उनके अभिभावकों को आमंत्रित कर सकते हैं। जब उनके द्वारा सृजित कहानियों को लोग देखेंगे और पढ़ेंगे तो बच्चे खुश तो होंगे ही गर्व का भी अनुभव करेंगे। वे और भी नए-नए तरीके से सोचने के लिए प्रोत्साहित होंगे।

शिक्षक अपनी कक्षा में बच्चों को लोककथा सुनाने के लिए कह सकते हैं। वे किन्हीं तीन बच्चों का चयन कर, उन्हें तैयारी का मौका देकर कक्षा में सुनाने के लिए कह सकते हैं। जब शिक्षक उन्हें तैयारी का मौका देंगे तो वे घर में अपने परिवार के सदस्यों को कथाएँ सुनाने के लिए कहेंगे। उनके बारे में जानकारी एकत्रित करेंगे और कक्षा में उसका प्रस्तुतीकरण करेंगे। वे इस कथित कहानी में अपनी ओर से कुछ और संदर्भों को जोड़कर भी सुना सकते हैं हो सकता है कि अगर उन्हें कुछ अंश पसंद न आए तो वह उसमें बदलाव भी कर सकते हैं। बच्चों को इसके लिए प्रोत्साहित भी करना चाहिए क्योंकि यही भाषा विकास की प्रक्रिया है जब बच्चों को प्रोत्साहन मिलेगा तो वे और भी नए-नए विषयों पर नई-नई कहानियाँ बनाएँगे। तत्पश्चात् इन कहानियों को अपने मित्रों और परिवार के सदस्यों को सुनाएँगे। इससे उनकी सर्जनात्मक क्षमता में वृद्धि होगी। बच्चों की रुचि और जिज्ञासा में वृद्धि करने हेतु शिक्षक मनोरंजक गतिविधियों को भी जोड़ सकते हैं।

कहानी का हाव-भाव के साथ प्रस्तुतीकरण करवा सकते हैं बच्चों से अभिनय भी करवा सकते हैं बच्चों के साथ मिलकर कहानी के पात्रों के लिए कपड़ों का चयन कर सकते हैं। कपड़े विद्यालय में उपलब्ध हो तो उन्हें दे सकते हैं। यदि उपलब्ध न हो तो उन्हें घर से लाने के लिए भी कह सकते हैं। अभिनय करवाने

से पूर्व शिक्षक बच्चों से स्क्रिप्ट भी लिखवा सकते हैं। इससे शिक्षक और बच्चों दोनों की भागीदारी बढ़ती है शिक्षक के सुझावों से बच्चे स्क्रिप्ट को रोचक बना

सकते हैं। एक सटीक स्क्रिप्ट और अच्छी वेशभूषा के साथ जब बच्चे कहानी का प्रदर्शन करते हैं तो उनमें आत्मविश्वास जागृत होता है। एक ही समय में वे अनेक क्षमताओं विकास करते हैं कहानी सुनने से लेकर अभिनय के साथ प्रस्तुतीकरण तक की प्रक्रिया में वे भाषा विकास की क्रिया से गुज़रते हैं भाषा विकास की इस क्रिया को संपन्न करने में शिक्षक का प्रोत्साहन और अभिप्रेरणा दोनों महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं शिक्षकों का प्रोत्साहन बच्चों के लिए प्रेरणा का स्त्रोत बनता है। इसलिए सदा इसे बच्चों के लिए लाभप्रद बनाने का प्रयास करना चाहिए। राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद् द्वारा एन.सी.एफ. 2005 के आधार पर विकसित प्राथमिक स्तर पर विकसित पाठ्यपुस्तकों जैसे रिमझिम 3, 4 एवं 5 में पंजाबी लोककथा, नागा लोककथा, उत्तर प्रदेश की लोककथा के साथ ही साथ गुजरात की लोककथाओं को भी सम्मान दिया गया है इन लोककथाओं के माध्यम से बच्चे मनोरंजन के साथ ही अपनी भाषा का भी विकास करते हैं।

निष्कर्ष

लोककथाओं के महत्व को संपूर्णता में समझने के बाद शिक्षक नवीनता के साथ विभि‍न्न बच्चों से जुड़ पाएंगे। इसके अलावा शिक्षक लोककथाओं के कथन के लिए विभि‍न्न विधि‍यों के इस्तेमाल पर भी आपस में चर्चा करेंगे। सामूहिक भागीदारी कर्इ चीज़ों के लिए मार्ग प्रशस्त करेगी, जैसे— कपड़ों का चयन, मुखोटों का निर्माण, मंच सज्जा, लोककथाओं के मंचन के लिए विभि‍न्न सामग्री के निर्माण पर व्यापक चर्चा वस्तुतः मौखि‍क आदान प्रदान के साथ ही उसकी प्रस्तुतीकरण बच्चों में अनेक नवीन शब्दों के ज्ञान एवं प्रयोग का रास्ता बनाएगी। बच्चे रुचि एवं आनंद के साथ लोककथाओं के मंचन में भागीदार होंगे। बच्चों में भाषा विकास इसी बात के लिए उन्हें प्रोत्साहित करेगी।

संदर्भ सूची-

· पंचतंत्र की कहानियाँ. 2012. आत्माराम एंड संस, कश्मीरी गेट, दिल्ली.
· रा.शै.अ.प्र.प. 2006. रिमझिम 3. राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद्, नयी दिल्ली.
· _______. 2007. रिमझिम 4. राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद्, नयी दिल्ली.
· _______. 2008. रिमझिम 5. राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद्, नयी दिल्ली

डॉ. दिनेश कुमार गुप्ता
सहायक आचार्य,
अग्रवाल महिला शिक्षक प्रशिक्षण महाविद्यालय, गंगापुर सिटी (राज.)
दूरभाष: 9462607259

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