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मानवीय हस्तक्षेप और प्रकृति पर प्रभाव




मत्स्य पुराण में प्रकृति की महत्ता बताते हुए कहा गया है

" सौ पुत्र एक वृक्ष के समान है"।अथर्ववेद में भी प्रकृति संरक्षण का सुंदर वर्णन किया गया है।" हे धरती मां जो कुछ भी तुमसे लूंगा,वह उतना ही होगा जितना तू पुनः पैदा कर सके, तेरे मर्मस्थल पर या तेरी जीवन शक्ति पर कभी भी आघात नहीं करूंगा।"

विधाता की अनुपम रचना यह सृष्टि प्रकृति से आच्छादित एक ऐसा भंडार है जो अनंत काल से ही मानव जीवन हितार्थ सर्वस्व न्यौछावर करती आ रही है। मानव प्रकृति के अंक में फलता फूलता रहा है। प्राचीन काल से ही ऋषियों मुनियों ने प्रकृति से आध्यात्मिक ज्ञान और चेतना को प्राप्त किया है। प्रकृति के सौंदर्य से प्रेरणा पाकर न जाने कितने काव्यात्मक अभिव्यक्ति का स्पंदन हुआ। काव्य सौन्दर्य की रचना कर कितने कवि अजर अमर हो गए।वस्तुत: प्रारंभ से ही मानव और प्रकृति का एक अटूट रिश्ता रहा है। अगर देखा जाए तो विश्व की समस्त सभ्यताओं का प्रारब्ध प्रकृति की गोद में ही हुआ। यूं तो मानव भी प्रकृति का ही एक अंग है परन्तु व्यावहारिक रूप से अपने को एक प्रथक इकाई के रूप में देखता है। प्रकृति से अलग होने की इसी प्रवृत्ति ने संभवतः उसी समय जन्म लिया जब मानव ने अपने जीवन को सुख सुविधाओं से सुसज्जित करना शुरू कर दिया और प्रकृति का दोहन करना प्रारंभ कर दिया।

विकास और आधुनिकता की अंधी दौड़ में, उपभोग की असीमित पिपासा में अतिक्रमण से प्रकृति को गुजरना पड़ा। मानव ने अपनी असीमित भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु पर्वतों सीना चीरकर, वनों को काटकर सड़कों और रेलपटरियों का, कंक्रीट का जाल बिछा दिया। अविरल प्रवाहित नदियों के जल को बांध बनाकर इसके मुक्त प्रवाह को प्रतिबंधित किया, जंगलों को काटकर बहुमंजिला इमारतों को खड़ा कर दिया। वायु में विषैली गैसें घोलने वाली फैक्ट्रियों का निर्माण कर दिया। अधिक उत्पादन की महत्वाकांक्षा में रासायनिक उर्वरकों ने भूमि को बांझ बनाने की ओर कदम बढ़ा दिया। राष्ट्र सुरक्षा के नाम पर जैविक, रासायनिक और परमाणु हथियार बनाकर पृथ्वी को विनाश के मुहाने पर लाकर खड़ा कर दिया।

ये ऊंची ऊंची इमारतें नभ से ही बातें करती थी
झुग्गी झोपड़ियां देख-देखकर कनखियां मारकर हंसती थी
आज धरा हो उठी विकल,माटी में मिल गया सब अहम

परिणामस्वरूप धरती का सीना छलनी हो गया और प्रकृति के विध्वंसकारी और विघटनकारी स्वरूप सामने आने शुरू हो गये है। केदारनाथ की घटना, बादलों का फटना, पहाड़ों का खिसकना, ग्लोबल वार्मिंग के कारण समुद्री जलस्तर का बढ़ना इत्यादि आपदाएं मानव को चेतावनी दे रही है कि यदि वक्त रहते मानव नहीं संभला तो आने वाले में और भी विध्वंसकारी परिणाम सामने आएंगे।

अतः फिर से आवश्यकता आन पड़ी है कि हम अपनी धरा को बचाने के लिए पुनः भारतीय संस्कृति के मूल्यों और ऋषियों मुनियों द्वारा स्थापित किए गए जीवन मूल्यों को अपनाएं और प्रकृति की रक्षार्थ सार्थक कदम उठाएं। प्रकृति अनुकूल विकास योजनाएं बनाई जाएं। प्राकृतिक संतुलन बनाए रखने के लिए संपोषणीय विकास को आधार बनाएं, जलसंरक्षण की पारम्परिक विधियों को पुनः विकसित करें, पहाड़ी क्षेत्रों में अनावश्यक छेड़ छाड़ न करें,वन क्षेत्रों का विकास किया जाएं,जैव विविधता का संरक्षण किया जाएं ताकि स्वत: ही अन्य क्षेत्रों में प्राकृतिक संतुलन स्थापित हो सके। ऐसे में आवश्यकता इस बात की भी है कि प्रत्येक मनुष्य अपना व्यक्तिगत उत्तरदायित्व लेते हुए प्रकृति संरक्षण में योगदान करें तभी मानव सभ्यता का सही मायने में विकास होगा और प्रकृति के विध्वंसकारी शक्तियों से विश्व को बचाया जा सकेगा।



अलका शर्मा
शामली, उत्तर प्रदेश

अरुणिता के फ्लिपबुक संस्करण

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